परिव्राजक की प्रजा | Parivrajak Kii Prajaa

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Parivrajak Kii Prajaa by शांतिप्रिय द्विवेदी - Shantipriy Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ह सगुण शिशु तहणखाना था, मानो जमीन के नीचे काई सुरंग हो | वहाँ बराबर ऑपेरा छाया रहता, अंधेरे में वह किसी तिलस्म-जैसा लगता था | सीढ़ियों से नीचे उतर कर हम बच्चे तहखाने में जा पहुँचते, वहाँ इधर-उधर भटक कर के रहस्य खोजने लगते | खोजते-खोजते स्वयं ही खो जाते। नदी के तल में जलज जीवों की तरह रुसरणु करते हुए, जब कभी अचानक किसी साथी का देह-स्पर्श हो जाता तभी हमें अपने अस्तित्व का आभास मिलता | अन्धकार के उस छायालोक की नीरब निर्जनता को भंग करने के लिए. किलकारी मार कर बच्चे चिल्ला उठते, प्रतिध्वनि से वहाँ का सूनापन सजीब हो उठता, ऐसा जान पड़ता, मानों उस तहखाने में अहश्य प्रहरी पहरा दे रहे हों । घर के चबूतरे के नीचे एक द्विउ्वज रेखा-जैसी माँमियों की छोटी- सी बस्ती थी| ब्राह्मण के घर के समीप होकर भला वे किसी से घट कर केसे रह सकते थे । जब मैं चबूतरे पर खेलता रहता तब नीचे से उचक कर महछुआहे मुझे अपने घरों में इस तरह खींच ले जाते जिस तरह जल का काई जीव उतरा कर्ण भर में फिर मीतर विलीन हो जाता है। किसी के पता भी नहीं चलता कि मैं कहाँ चला गया ! अहा, अपने रसोई' घर में माँमियों की शहिणियाँ मेरा केसा आतिथ्य करतीं ! वे मुझे अपने काठ के बत्तनों में मछली-भात खिलातीं | कभी- कभी तो वे मुझे सब के सामने से भी उठा ले जातीं। बच्चों की तो নাই जात-पाँत नहीं होती, इसलिए उन पर सबके स्नेह का अधिकार रहता है | म[मियों की बस्ती से सटा श्रा स्याद्वाद जेन महाविद्यालय है | वह सचमुच अपने नाम के अनुरूप ही हमारी पहुंच के बाहर जान पड़ता था| फिर मी मेरे बाल्यसंस्कारौ मे उसकी भी स्ति बनी हई हे। गङ्गातट-स्थित इस विशाल विद्यालय कौ हुत बहुत बड़ी है। छुत के




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