ज्ञान मूल्य और सत | Gyan Mulye Or Sat
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.42 MB
कुल पष्ठ :
140
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)तत्त्वज्ञान क्या है ? ] [ &
सम्प्रदाय किसी-न-किसी अर्थ में अवश्य समीचीन है तो उनके सहभाव या
समुच्चय का एक सिद्धान्त मिल जाता है । इसके अतिरिक्त कोई दूसरा सिद्धान्त
भी होना चाहिये जो इन तमाम सिद्धान्तो को गारे की तरह एक दीवाल में
जोड दे अथवा सूत्र की तरह एक माला मे पिरो दे । वह सिद्धान्त अभी किसी
के विचार मे भाया नही है । हेगल का विरोधियों का समुच्चय ( 5फु06515
0 00005965 ), फ्रोचे का भिन्नसत्ताभों का समुच्चय ( 56४15 0
ताइटा ७६९5 ) और कालिंगउड का ऐतिहासिक समुच्चय या दर्शन की साम-
यिकता आभाज पर्याप्त नहीं है । पहला व्याघात है । दूसरा समुच्चय का
अथ ही नही देता है। यह काम तो स्याद्दाद या व्तेंमान हक ! ही देता है ।
कालिगउड का समुच्चय सिद्धान्त, कि प्रत्येक दशंन अपने समय, स्थान भौर
द्रष्टा के अनुसार सही है, दर्शन की सार्वभोमता पर प्रहार करता है । यह
द्शन की चिरन्तन-सत्यता का निराकरण करता है, जो वस्तुत्त समुच्चय
नहीं, वरन् एक नया दर्शन है । अतएव कालिंगउड का. समुच्चय-
सिद्धान्त वस्तुत समुच्चय नहीं है। इस प्रकार वतंमान युग मे प्रत्येक
समुच्चयवादी को वह सिद्धान्त ढूंढना है, जिससे सच्चा सर्व-दर्शन-
समुच्चय हो सके । वया तत्वज्ञान के स्वमान्य लक्षण मे वह सिद्धान्त नह्दी
मिलता
दाशंनिको को जब अपना मा नहीं सुझता तो ये किसी प्राचीन दर्शन,
लोक-व्यवहार, धर्म या विज्ञान की शरण लेते हूं और दर्शन को इससे
शासित करते है। भारत के दार्शंनिकों के लिए एक और भी शरण है । वे
किसी-न-किसी वर्तमान विदेशी दर्शन का मन्धानुकरण करने लगते हैं, रग
का प्रवाह समझ फर । पर यह गड्डलिका प्रवाह है। भाज कितने ही
भारतीय मनीपी पाएचात्य सत्तावादी (ए30.51601181150), त्ताकिंक प्रत्यक्षवादी
( ०८ लपफृपपपा5६ ) गौर चस्तुवादी ( ह८००ा४1) की नकल चिता
सोचे समझे कर रहे हैं। कुछ पाश्चात्यो को तो यह पता है कि थे दर्शन-
सम्प्रदाय भारत में घटित हो चुके हैं। पर इन भारतीयों को यह ज्ञात
नहीं । वे इन सम्प्रदायो को विशेष शत्ताव्दी का दर्शन समझते है । वया अभी
तक दर्शन का इतिहास यह न सिद्ध कर सका कि दर्शन किसी जाति, देश,
फाल, घर्म भौर राष्ट्र का नहीं होता * वह हिन्दू, सुस्लिग, फ्रिस्तान नही,
पुरातन भौर अमधुनातन नही, पूर्वी और पश्चिमी नहीं । वह धर्म, विज्ञान भर
लोव-उुद्धि से शासित नही होता । उसे यदा कदा इनसे सम्राम लेना पडता हे ।
ये परिवर्तनशील हूं भौर भाया-जाया करते हैं । इनमे चिरन्तनता नद्दी है ।
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