बृहत जैन शब्दार्णव खंड 2 | Brahat Jain Sabdarnav khand 2
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
34 MB
कुल पष्ठ :
406
श्रेणी :
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No Information available about ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद - Brahmachari Shital Prasad
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)_अविकरण ७. -.. बूहव जन इब्दाणव। 2 अधियम् | [ २८७
` तीक लोकव्यापी एंक जख॑प्ड द्रव्य है, नो स्वये ठहर- | अहृण करनेक्ी क्रिया | वह २५ क्रियाजोंमेसे ८दीं
नेवाले जीव और पुद्ुछोंको ठहरनेमें सहकारी होता | क्रिया'है नो मालदफे सानेमें कारणमृत है। देखो
है, परणा नहीं. करता है | जैसे छाया पथिक्रकों ठह- | अघक्नारी क्रिया शठद (प्र० खं० ए० ७६) |
रनेमें कारण होती. है वेसे ही उदासीनपनेसे यह | अधिक्रणिक-युख्य जन-युनराठमे चमी
: क्षारण पढ़ता है। इतना जरूरी है कि यदि इसकी | रानाओंद राज्य था, उत्त समय १८ अधिझारी नियत
सत्ता न माने तो कोई वस्तु थिर चहीं रह सकेगी। | होते थे-(१) सायुक्तिक या वितियुक्तिक-मुख्य अधि
यह छोक जो ३४३ घत राजू प्रमाण एक मयोदामें | कारी (२) द्रांगिक-नगरक्ा जधिक्वारी (३) महत्तरि
यन रहेगा, यदि ण्म व्यक्तो न माना | प्रामपत्ति, (४) चाव्मट-पुलिप्त तिणदी, (५) श्रव
जायया | यह् द्रवण या परिणमनशोर ६, इदे | थामझा दित्ताव रखनेदाला वेश्न जधिकारी, तकारी
इसको द्वव्य कहते हैं। इसमें छोहझव्यापीपना है | वा इल्छरणी, (द) सधिङरणिर मुख्य जन, (७)
स्थात् यद अप्तष्याठ बहु प्रदेरी है | इपल्यि | ठंडपा्तिर-पुख्य पुटित याकि, (८) चौरीदर्धि
इप्तको भस्तिकाय कहते हैं। एक प्रदेयीष्रो सस्ति- | चोर पकडनेवाक्ञ, (९) रमस्थानीग्र-दिदेत्ती रान-
काय नहीं कह सक्ते । जेते कार्दरव्य (सवा ° स ० | मंत्री, (१०) जमालरमनी, (११) अनुन्वन्नायान
६ सु० १३८३ १३६ व१७)। प्मुदग्राहक-पिछकाकर बछुझ करनेदाला, (१२)
अधिकरण-णाघार-जिप्तमें फ़ोई वस्तु रहे । | शोल्किक-छुगी जाकिपर, (१३) सोगिक या मोगो-
पदा्थौक्नो जानने ८-६ रीतियां हं १ निरदेप- | द्णिक-सामदनी वा देर् वल्ल इरनेदाला (१ ४)
स्वरूप फथन, २ स्वामित्व-मालिन्न वताना, २ साधन- | वत्मेपाछ-मार्गनिरीक्षक सवार, (१५) प्रतिप्तरक्ष छेन्न
होमेका उपाय वताना, 2. मधिकरण-कहां वह रहती | जोर गझामोंके निरीक्षक, (१६) विषयपति-प्रतिफे
है प्तो बताना, ५ स्थिति-फालक्की मर्यादा बताना, | साकिप्तर (१७) सा्ट्रति-शिलेके आद्विपर,
६ विधान-उप्तके भेद बताना (सदों० जु० १ सु० | (१८) द्यामपति-ग्रामझ मुद्तिया (ब८ एम
७), फर्मोकि जानेके कारण জী भाव हैं उनमें अवि- | ४०९ १५० )1
करण भी है। नजीद व जनीपक्े भेदसे दो प्रकार
अधिकरण है। नीवाधिक्रण सर्वात सीने र्ये
आधार, भिनसे চটী जाते हैं। वे ६०८ हर-
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