भारतीय संस्कृति और साधना द्वितीय खण्ड | Bhartiya Sanskritik Aur Sadhna Khand 2

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Bhartiya Sanskritik Aur Sadhna Khand  2 by महामहोपाध्याय डॉ. श्री गोपीनाथ कविराज - Mahamahopadhyaya Dr. Shri Gopinath Kaviraj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गरतीय सम्टृति में संग झा आदेश $ है | उसनाने जैसे ह ये देखा था उसी प्रगार हर ऊे शरण अधिया शो लल्ला उनको यथा भा अनुसब हुआ फि स्थिति या भी उ 7 सा तात्यार हुआ | आह्ययनण हमसे ही निद्यग नाम हेते # | बह नग दे वार्तिक अभाव वी दद्या £ | লে মাাণুশ্ন বীভু লারা দেলীতিল্ট লালা শল্ন কা ভুলা কহলা ই | क्योति उन्ेन हू रानिवत्ति को देखा था और দা শীল্ন था जि उस নিন লা ল- সন छबस्था से লন বা নাহ भी ह | यदि भाग नहीं रहता तो पा शान्ति सस्प हने पर भी, आक्रान उसमे के समान অনীক টাহানী | জ্নিল চিলন जी सम्भावना ह नी, पहुचने तय का सास ही नहीं, उसे अच्छा होने पर नी उसझा मृल्यक्या শালা? ~ == £ ~~ <~ ~~त ~~ नि नह| < | = 7: नञा परय ह ध শুন सार्गज थे, इसी या नाम आय मार्ग # | ये उपरक्त चार आर्यं सन्य बुद्रदेव के व्यनिगत आविषमार 6-- उनके निकट प्रकाशित গুণা শল্গ ৯ स्वरूप-गंत चार विभाग ४ | ध्न सत्या वा अपगंध्वनुभव ने वरन से ही साधारण जीदी फ्ा उपेय লাল प्रा अधिकार नाग रहता। प्रमाणवार्तिफ बी मनोर्थनन्दीय्रत्ति से ल्खिा है-- “स्वयम्‌ भसाक्षास्कृतस्थ देशनाथा विप्रत्म्भसस्भावना 1? घुखदेव का यष्ट यविसत मागं या पन्थ अविद्ानिवृत्ति का और ४ पनान्न वा सम्यक्‌ मागर । गर्ोदग्से गगदप्रादि सभी यदत टं । सत्यदर्गन वै अभाव से दी दुस उत्न्न शोते ह और सत्यदगन से ही दु स की नि्नत्ति होती है। सक्षेप में दु स, उसका समुदय, उसका निरोध जोर निरोध का मार्ग, ये चार दर्शनीय सत्य | दर्शन से दर्शन का अम्यास अर्थात्‌ भावना किंचित्‌ निकृष्ट है। सत्यदर्णन से समग्र विश्व ই; ইটা की निवृत्ति द्यो जातीर। एक णमे दृष्टे -। दु ख दर्भन- मार्ग के द्ग नष्ट हो जाते ह | यह अनाखब या झुद्ध पस्था है। भावनाहेय दु ख भी दर्शन के प्रभाव से निषृत्त होते ६, किन्तु सभी एक साथ नहीं | विभिन्न क्षणों मं चिमित्न प्रकारके दुर्खो की निवृत्ति दती ट । भवाग्र का दु,ख दर्जन के बिना नित्त नहीं हो सकता । भावना शमय या समाधि का ही नामान्तर है | अधिकाशतः भावना साव या मलिन होती है। एकमात्र 'सत्याभिसमय! ही अनासख्रव या निर्मल है। टस मार्ग पर चलने वाले पथिक को शील या सदाचार का अभ्यास करना पटता हैं | इसके बाद श्रुतमयी तथा चिन्तामयी प्रजा अजित करनी पडती है। इसके अन्त में भावना-सार्ग में आरूढ होने की सामर्थ्य आ जाती है। आनुपज्धिकरूप से एकान्तवास और अबुशल वितर्यों से चित्त को मुक्त रखना चाहिये । चित्त मे सन्तोप्र तथा आकालार्ओ का हास टस मार्ग के लिए विशेष उपयोगी है। भावना-विश्ेष के निरन्तर अभ्यास से चित्त यान्तो जाता र| उस समय स्मृति का उपस्थान होता है | उपस्थान चार प्रकार के हैं। उनमें धर्मस्मृति का उपस्थान प्रमुस है। साधन के बल से क्रमणः पुष्ट होने पर विशिष्ट प्रशा का उदय होता है| इस प्रजा के क्रमिक विकास में उण्णगत, मर्धा, क्षान्ति तथा अग्रधर्म इन चार अवस्थाओं का उदय হ্বীনা




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