जैनधर्म - मीमांसा भाग १ | Jaindharm Meemansa Bhag-1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
33 MB
कुल पष्ठ :
1294
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)घर्मंका स्वरूप १९
১০৬ ~~~
৬৮
रहा है, चमडेको छेदकर मासको छेद रहा है, मासको छेदकर
नसको छेद रहा है, नसको छेदकर हड्डीको छेद रहा है, हड्डीको
छेदकर घायल कर दिया है । अच्छा हो भन्ते } आर्य, मातापिताकी
अनुज्ञाके विना किसीको दीक्षित न कर |
इसके वाद महात्मा बुद्धने भिक्षुओको एकत्रित किया और नियम
बनाते हुए कहा---
“ भिक्षुओ, माता-पिताकी अनुज्ञाके बिना पुत्रकों दीक्षित न
करना चाहिए, जो करे उसे दुक्कट ( दुष्कत) का दोप है। ”?
आप देखे कि दीक्षाके मार्गमे यह रुकावट कितनी अच्छी थी |
महात्मा महावीरने तो यह रुकावट झुरूसे ही रखी । इतना ही
नहीं, अपने जीवनमें ही उनने इसका पालन किया । माता-पिताकी
अनुज्ञाके विना वे कई वर्ष रुके रहे । आश्रम-व्यवस्था, महात्मा
बुद्धका अपवाद तथा इस विषयमें महात्मा महावीरका प्रारम्भसे और
महात्मा चुद्धका राहुलको दीक्षित करनेके बादका मध्य मार्ग, ये तीनों
अपने अपने देश-कालके लिए उपयोगी रहे हैं | इसलिए इन तीनोंमें
कुछ विरोध नहीं कहा जा सकता |
अब थीड़ासा विचार द्वैत और अद्वेतपर भी कीजिए | अदैतवादी
कहता है कि सव्र जगतका मूर त्व एक है, दैत भावना करना
ससारका कारण हे ] इस प्रकारका विचार करनेवाछा मनुष्य, यह
मेरा स्वाथे, वह दूसरेका स्वाथे, यह विचार ही नहीं छा सकता |
वह तो जगते हितम अपना “हित समझेगा | जिस वैयक्तिक
स्वार्के पीछे लोग नाना पाप करते हैं, वह वैयक्तिक स्वार्थ उसकी
दृष्टिम न रहेगा । वह निष्पाप बनेगा। द्वैतवादी कहेगा---मूछ तत्त्व दो
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