जैनधर्म - मीमांसा भाग १ | Jaindharm Meemansa Bhag-1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घर्मंका स्वरूप १९ ১০৬ ~~~ ৬৮ रहा है, चमडेको छेदकर मासको छेद रहा है, मासको छेदकर नसको छेद रहा है, नसको छेदकर हड्डीको छेद रहा है, हड्डीको छेदकर घायल कर दिया है । अच्छा हो भन्ते } आर्य, मातापिताकी अनुज्ञाके विना किसीको दीक्षित न कर | इसके वाद महात्मा बुद्धने भिक्षुओको एकत्रित किया और नियम बनाते हुए कहा--- “ भिक्षुओ, माता-पिताकी अनुज्ञाके बिना पुत्रकों दीक्षित न करना चाहिए, जो करे उसे दुक्कट ( दुष्कत) का दोप है। ”? आप देखे कि दीक्षाके मार्गमे यह रुकावट कितनी अच्छी थी | महात्मा महावीरने तो यह रुकावट झुरूसे ही रखी । इतना ही नहीं, अपने जीवनमें ही उनने इसका पालन किया । माता-पिताकी अनुज्ञाके विना वे कई वर्ष रुके रहे । आश्रम-व्यवस्था, महात्मा बुद्धका अपवाद तथा इस विषयमें महात्मा महावीरका प्रारम्भसे और महात्मा चुद्धका राहुलको दीक्षित करनेके बादका मध्य मार्ग, ये तीनों अपने अपने देश-कालके लिए उपयोगी रहे हैं | इसलिए इन तीनोंमें कुछ विरोध नहीं कहा जा सकता | अब थीड़ासा विचार द्वैत और अद्वेतपर भी कीजिए | अदैतवादी कहता है कि सव्र जगतका मूर त्व एक है, दैत भावना करना ससारका कारण हे ] इस प्रकारका विचार करनेवाछा मनुष्य, यह मेरा स्वाथे, वह दूसरेका स्वाथे, यह विचार ही नहीं छा सकता | वह तो जगते हितम अपना “हित समझेगा | जिस वैयक्तिक स्वार्के पीछे लोग नाना पाप करते हैं, वह वैयक्तिक स्वार्थ उसकी दृष्टिम न रहेगा । वह निष्पाप बनेगा। द्वैतवादी कहेगा---मूछ तत्त्व दो




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