कुंद कुंद - भारती | Kundkund Bharati
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
490
श्रेणी :
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No Information available about पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावनां ७
पुरस्कर्ता आचार्य वीरसेन ने अपनी टीकामें कई जगह किया ह ! इससे पता चलता है कि उतके समय तक
तो वह उपऊग्ध रहा । परन्तु आजकल उसकी उपलब्धि नहीं है। शास्त्र भाण्डारों, खासकर दक्षिणके
शास्त्र भण्डारोंमें इसकी खोज की जानी चाहिये। मूलाचार भी कुन्दकुन्द स्वामीके द्वारा रचित माना जनिं
लगा है बयोंकि उसकी अन्तिम पुष्पिकामें 'इति मूलाचार विवृती द्वादशोध्ध्याय:। कुन्दकुन्दाचार्य
प्रणोत मूछाचाराख्य विवृति:। कृतिरियं वसुनन्दिन: श्रमणस्थ' यह उल्लेख पाया जाता है।
विद्येप परिज्ञानके लिये पुरातने वाबय सूचीकी प्रस्तावनामें स्व० पं० जुगलकिश्ोरजी मुख्त्यारका संदर्भ
पठितब्य है ।
कुन्दकुत्द साहित्यमें साहित्यिक सुपमा
कुन्दकुन्दाचार्य ने अधिकांश गाया छन््दका, जो कि आर्या नांमसे प्रसिद्ध है, प्रयोग किया है। कहीं
अनुष्टुप् भौर उपजातिका भी प्रयोग किया है । एक ही छन्द को पढ़ते-पढ़ते बीचमें यदि विभिन्न छन्द भा
जाता ह तो उसे पाठककफो एक विप प्रकारका हर्प होता है। कृन्दनुन्द स्वामीके कुछ अनुष्टुप छन्दोका
नमूना देखिये ।
ममत्ति. परिवज्ञामि निम्ममत्तिमृवद्दिदों ।
आलंबणं च में आदा अवसेसाई बोसरे)॥ ५७ ॥--भाव प्राभृत
एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणों।
বীঝা ঈ वाहिरा भावा सव्व संजोग लक्खण 11 ५९ ॥--भावप्रामृत
सुरेण भाविदं णाणं दुहे जादे. विण्सदि ।
হা জন্থানভ जोई अप्पा दुबखेहि भावए॥ ६२ 1--मोक्ष प्राभूते
विरदी सब्वरसावज्जे तिगुत्ती पिर्हिददिओ।
तस्स सामादगं उद इदि केवलिसासणे ॥ १२५ ॥
जो समो सब्परभूदेसु थावरेसु वसेसु वा।
तस्स सामाइगं खाद হুহি केवलिसासणे ॥ १२६ ॥--नियमसार
चेया उ पयडी अं उप्पज्जइ विणस्सइ।
पयडी वि चेययदुं उप्पज्जद विणस्सद् ॥ २९२९ ॥
एवं वंधो उ दुण्हूं वि अण्णोण्णप्पच्चया ह्वे ।
प्यणो पथडीए य संसारो तेण जायु ॥ ३१३ 1[--समय प्राभृत
एक उपजात्तिका नमूना देखिए--
गिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण
लुवलस्स लुक्खेण दुराहियेण ।
णिद्धस्स लुबंखेण हवेदि बंधो
जह॒ण्णवज्जे विसमे समे वा ॥--प्रवचनसार
अलंकारोंकी पट भी कुन्वकुन्दस्वामी ने यथा स्थान दी है। जैंसे, अप्रस्तुत प्रशंशाका एक उद्ाहरग
এ प्रो सुटठ वि आयण्णिकण जिणधरम्म ।
ण मयहई पयष्धि अभब्धो सुटृठु वि आयोग ह
गुडदुद्ं पि पिवंता ण॒॑ पण्णथा णिव्विसा होंति ॥॥ १३६ ॥--भाव आशभृद
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