रस सिध्दान्त i शास्त्रीय समीक्षा | Ras Sidhdant Ki Shastriya Sameeksha

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Book Image : रस सिध्दान्त i शास्त्रीय समीक्षा  - Ras Sidhdant Ki Shastriya Sameeksha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हाँ, एक वात अवश्य है । इस काये मे स्वामीजो ने प्राचीन झास्त-लेखको ब्ये एक परम्परा को तो त्याग ही दिया । सस्छत के हमारे यास्त्रक्मरों की खण्डनर्गली में व्यक्ति के नामोल्लख के विना केवल विचारो को ही आलोचना हुप्मा रूरती थी, अले उसकी भाषा कठोर या कटु ही क्यों न हो । किन्तु इसके ठोक विपरीत स्थिति है आधुनिक झोघ-प्रक्रिया वी, जहाँ “टाकूमेन्टेशन' का अपना एक अलग ही विधि- विधान है जो ऐसे प्रत्येत्न खण्डन-मण्डन में पूर्व-सदर्म का स्पप्ट उल्लेख झनिवार्य सानता है । इसलिए स्वामीजी विवश्व हो गये, आधुनिक रपि अपनाने में মনত है भो ठोक, क्याकि वर्तमान सदभ म “इति केचित्‌, तन्न”, “इति केचिन्मन्यन्ते, तत्‌ तुच्ठम्‌”, “तद्‌ ब्रसारम्‌”, “तद्‌ अज्ञानविजुम्भिनम्‌ की पद्धति ब्राज जर्जरित सिद्ध हो गयी है । इसलिये स्वामीजी का निर्णय सहो था कि अव शोध के क्षेत्र मे ऐसे बैचिद' वाले मुहावरों की दाल नहीं गलेगी और न्वम्य श्रालोचना मे श्रालोच्य पक्ष का पूर्व सदर्भ देना ही उपयोगी एवं उचित होगा । विन्न पाठकों के लिये निद्चिवत ही यह विचारभोय प्रइन है कि आखिर स्वामीजी की प्रस्तुति मे और उन पूर्वलेखको की प्रस्तुति में, जिन से पद-पद पर लोहा लेने का स्वामीजी ने साहस बटढोरा है, इतना वटा अन्तर और अन्तराज सो है ? मेरे विचार से इसके दो कारण हैं ॥ (१) पहला स्वामीजी सस्कृत वी उस प्रौड प्राचीन पद्धति (जो झ्राज दुर्भाग्यवश मिटने को और तेजी से बटती जाती है) के मान्य प्रतिनिधियों में से हैं, जो कसी पी प्रन्ध के पअ्रध्यवन-गप्रनुघीलन में पड क्ति-पाठ' और “पड क्ति-शुद्धि! पर महान्‌ झाग्रह करते हैं। ठीक इसवे विपरीत है वर्तमान वेग-युग के प्रध्ययन का आदर्श जिसके बारे में एक पारम्परिक विद्वानू न सुन्दर छन्‍्द लिख डाला है-- अन्तःपातमहत्वेव निवन्धाम्यन्तरस्थितम्‌ 1 आपाततो दिदृक्षन्ते केचिदायासभीरव- ॥ भावार्थ इस प्रकार है--परिश्रम से क्तराने वाले कुछ (आराघुनिक) लोग ग्रन्थ के अन्दर डूब कर उसके प्रत्येक पद, मुहावरे झौर वाक़्य के प्रौट-गन्भीर विश्वेषण के द्वारा उसकी गहराइयों तक पहुँचने के वेश में पडना नहीं चाहते हैं 1 ऐसे शाव्दिक व्यायाम वर्गरह वे लिये उनके पास समय नहीं है । चाहते हैं केवल ग्रन्य का सार । ऊपर-ऊपर मे ग्रन्थ में निहित मूलभावों वे सममनेमात्र से वे सन्‍्तुप्ट हैं। ग्रस्यावलोकन में उनका लक्ष्य ही इसने तक सोमित है। (२) दूसरा कारण यह है कि स्वामीजी हमारे देश के विशुद्ध शास्त्रीय परम्परा के वाहक हैं, जिसे सम्दृत में कहते हैं सम्प्रदाय । प्राजक्ल सम्प्रदाय” शब्द से ही लोग बिटते हैं | धामिक- कुरोतियो मे जुड़ जाने के कारण “सम्प्रदाय ही निन्‍्ध और हैय बन गया | जन- १ शान्विरक्षित-प्रशोत तन्वमझू ग्रह (बढादा सस्वरध), प्रथम जमिन्‍द, सम्प्रादर प्र एस्दार डृशाण्माचार्य को मस्केतप्रस्तावना, पृ रह [१०]




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