तीर्थकर | Teerthkar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
380
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१२ ] तोयंकर
आ चुका है। श्रेणिक महाराज अब्ती थे, क्योकि वे नरकायुका बंध
कर चुके थे । थे क्षायिक सम्यक्त्वी थे । उनके दशन-विशुद्धि भावना
थी, यह कथन भी ऊपर आया है। महावीर भगवान का सानिध्य
होने से केवली का पादमूल भी उनको प्राप्त हो चुका था। उनमें
शविततरत्याग, शविततस्तप, ग्रावश्यकापरिहाणि, शील-ब्रतो मे निरति-
चारता सदृश सयमी जीवन से सम्बन्धित भावनाओं को स्वीकार
करने मे कठिनता श्राती है, किन्तु अहंन्तभक्ति, गणघरादि महान्
गुरुओ का श्रेष्ठ सत्सज्ञ रहने से आचार्य-मवित, वहुभरुत-भक्ति,
प्रवचन-भक्ति, मागे-प्रमावना, प्रवचन-वत्सलत्व सदृश सद्गुणो का
सद्भाव स्वीकार करने मे क्या बाधा है ? ये तो भावनाएं सम्यक्त्व की
पोषिकाए है । क्षायिक सम्यकत्वी के पास इनका अभाव होगा, ऐसा
सोचना तक कठिन प्रतीत होता है । भ्रतएव दशंन-विशुद्धि की विशेष
प्रधानता को लक्ष्य में रख कर उसे कारणो में मुख्य माता गया है ।
इस विवेचन क प्रकाश मे प्रतीयमान विरोध का निराकरण करदा
उचित है ।
सम्यग्दगंत तथा दर्शन-विशुद्धि भावना में भेद
इतनी बात विशेष है, सम्यग्दशन और दर्शन-विशुद्धि-
भावना मे भिन्नता है | सम्यग्द्शन आत्मा का विशेष परिणाम है ।
वह बध का कारण नही हो सकता । इसके सद्भाव में एक लोक-
कल्याण की चिशिष्ट भावना उत्पन्न होती है, उसे दर्शन-विशुद्धि-
भावना कहते हे । यदि दोनो मे ग्रन्तर न हो, तो मलिनता श्रादि विकारो
से पूर्णतया उन्मुक्त सभी क्षायिक सम्यक्त्वौ तीर्थंकर प्रकृति के वधक
हयै जाते, किन्तु एेसा नही होता, अत. यह मानना तकं सद्धत है, कि
सम्यक्त्व कं साथ मे ग्रौर भी विशेष पुण्य-मावना का सद्भाव
आवइग्रक है, जिस शुभ राग से उस प्रकृति का बध होता है ।
श्रागम में कहा है कि तौनों सम्यक्त्वो मे तीर्थकर भ्रकृति
का बंध हो सकता है, श्रत. यह् मानना उचित ह कि सम्यवत्व रूप
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