क्रियावाद | Kriyavad

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Kriyavad by श्री फूलचंद्र - Shri Fulchandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ त्रियावाद वे द्वितोत्॒ अध्याय में प्रिया वे भझातगत पृरगल उसके विविध रूपों परमाणु तथा स्कथ इन का लक्षण और इन के गुणों मे हास, विकास सयाग वियोग गति स्थिति श्रादि परिवतनक्या?झौर कस हांते हैं'एव अजीव क्रिया का वणन करते हुए इन सव उपयु क्त बाता पर ययेष्ठ रौद्यनो डाली गई है । जीव क्रिया का उपत्रम करत हुए जोव और कम का स्वरूप भी दगया गयादहै? माना क्रिया शब्द के द्विताय সমিপান परिस्पदन क लर्केर सार रूपी रगम-्के दो प्रधान नायकौ के नाता झ्मिनया का चित्रण करते का लेखक की कुशल लेखनो न पूरा पूरा प्रयास किया है। पुस्तक कै ततीय अध्याय म त्रिया दब्ठ का उल्लेख श्ञाल निरपेक्ष चारित्र श्रषति शुष्क चारिश्र को लक्र किया गया है। शान ददान शू-य चारित्र “अजागलस्तत को तरह निरथक भारभूत और ढांग मात्र है। एसा चारित्र माक्ष का साधक नहीं होता । बह क्रिया जो मोक्ष का सापान न बने जो मुक्ति वे चिखर पर न जे जा कर जीव को ससार के भ्रधकारमय भोरे म॑ उतार दे बह क्रिया त्याज्य एवं हेय है। उससे श्रय वी सिद्धि नही होतो । थह बात पाठक वै हृदय मे उतारने का इस पुस्तक गै तीरे सगर म सफले प्रयत्न क्या गया है। क्रियावाद के चतुथ अध्याय मे क्रिया शब्द के चतुथ अ्रभिष्राय क्रिया सम्यक चारित्र को दृष्टि मे रखते हुए चान सहित चारित्र की उपयोगिता वा प्रतिपादन क्या गया है ? शान भौर दटान पूर्वक चारित्र का सम्यक परिपालन ही मनुष्य को मुक्ति के श्रमर तोरा की झोर ले जा सकता है। केवल बाह्य निर्जीव चुष्क चारित्र का झ्राराधन जीव को अम्युदय के शिखरा की तरफ कदापि नही ले जा सकता । इस प्रकार इस चतुथ




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