संघर्ष के बाद | Sangharsh Ke Baad

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Sangharsh Ke Baad by विष्णु प्रभाकर - Vishnu Prabhakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द स जन्दा -रहूंगा गई और अपने स्थानपर वैठकर पहलेकी भाति उस बलखातें डाई मागे को देखने लगी । नीचे कूलियोका स्वर बन्द हो गया था । ऊपर वादलोनें सब कुछ अपनी छायामे समेट लिया श्रा। चन्द्रमाका प्रकाश भी उससे इस तरह घुल-मिल गया था कि उनकी भिन्नता रहस्यमय हो उठी थी । राजको लगा वादलोकी वह धुध उसके अन्दर भी प्रवेथ कर चुकी है और उसकी शान्तिकों लील गई हैं। सहसा उसकी आँखे भर आई और वह एक भटकेके साथ कुरसीपर लुढककर फूट-फूटकर रोने लगी । प्राण सब कुछ देख रहा था । वह न सकपकाया न त्द्ध हुआ । उसीतरह खडा हुआ उस फूटते आवेगको देखता रहा। जब राजके उठते हुए निर्वास कम हुए और उसने उठकर आँखें पोछ डाली तब उसने कहा दिलका वोक उतर गया . आओ तनिक घूम आते । राजने भीगी दृष्टिसि उसे देखा एक क्षण ऐसी ही देखती रही फिर बोली प्राण मे जाना चाहती हूँ । कहाँ ? कही भी । प्राण बोला दुनियाको जानती हो । क्षणभर पहले यहाँ सब कुछ स्पष्ट था पर अब नही है सब कुछ वादलोकी धुन्धमे खो गया है । में भी इस धुन्धर्मे खो जाना चाहती हूँ । प्राणने दोनों हाथ हवामे हिलायें और गम्भीर होकर कहा तुम्हारी इच्छा । तुम्हे किसीने वॉधा नहीं हे जा सकती हो। .. राज उठी नहीं । उसीतरह-बेठी रही और सोचती रही। रात आकर चली गई उसका सोचना कम नहीं हुआ बल्कि और भी गहरा हो उठा। उसने दिनभर दिलीपको अपनेसे अलग नहीं किया। स्वयं ले जाकर मालपर भूलेंगे भुला लाई। स्वय घुमाने ले गई और फिर खिला-पिलाकर सुलाया भी स्वयं । बहुत देर तक लोरी सुनाई थपथपाया सहलाया । वहू सो गया तो रोई और रोते-रोते बाहर वरामदेमे जाकर




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