आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन | Agama Aura Tripitaka Ek Anushilan

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Agama Aura Tripitaka Ek Anushilan by मुनि श्री नगराज जी - Muni Shri Nagraj Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एक अवलोकन मुनि श्री नगराजजी द्वारा लिखित आगम ओर अ्िंपिटकः एक अनुशीलन' ग्रन्थ का श्रवण कर मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ । मुनि श्री ने त्रिपिटक-साहित्य के जितने अवतरणों का अवलोकन व संकलव किया है, वह बहुत श्रमसाध्य एवं अपूर्वं है । ग्रन्थ बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी षन पाया है। ग्रन्थ में चचित अनेक पहलुओं पर स्वतंत्र निबन्धं लिखे जा सकते हैं, ऐसा मैंने मुनि श्री को छुकाया भी है। णेत और बौद्ध परम्परा का तुलनात्मक अनुशीलन एक व्यापक विषय है। इस दिशा में विभिल लेखकों द्वारा पठे भौ स्फुट रूप से लिला जाता र्हा है। मुति श्री ने तीत खण्डों को परिकल्पता से इस कार्य को उठाया है, यह अपने-आप में प्रथम है। इस अरन्य का परायणं मेरे समक्ष लगभग तीन सप्ताह चला । दस सन्दर्भ भें मुनि श्री नगराजजी एवं मुनि श्री महेद्धकुमार जी द्वितीय” ते सम्बन्धित पहलुओं पर विस्तृत चर्चा भी होती रही। में उनके मूल-स्र्शी अध्ययत एवं तटस्य चिन्त से भी प्रसन्न हुआ । इतिहास और परम्परा' खण्ड के श्रवण से मेरे मन में जिन विचारों का उद्भव हुआ तथा जो धारणाएँ बनीं, वे संक्षेप में इस प्रकार हैं--- भारतीय संस्कृति की ब्राह्मण भौर श्रमण; इन दो धाराओं में अनेकविध भिन्‍नता दृष्टिगोचर होती हे । ब्राह्मण संस्कृति में जहाँ हिसामय यज्ञ आदि क्रियाकाण्ड, भाषा-शुद्धि मंत्र-शुद्धि आदि को प्रधानता दी गई है, वहाँ ये सभी पहलू श्रमण-संस्कृति में गौण रहे हैं । जैन और बौद्ध--श्रमण-संस्कृति की इन दोनों धाराओं में इस टृष्टि से बहुत अभिल्तता पाई जाती है। इन दोनों में वेदों की अपौस्षेयता को चुनौती दी गई है तथा जातिवाद की तास्विकता अमान्य रही है । मुख्यतः प्रधानता संयम, ध्यान आदि को दी गई है। गृहस्थ उपासको की दृष्टि भी संयम की भोर अधिक रही है । ऐसे अनेक पहलू हैं जो इन दोनों भ्रमण-धाराओं में समान रहे हैं । महावीर ( निगष्ठ तातपुत्त ) और बुद्ध के अतिरिक्त पूरण काश्यप, अजित केशकम्बल, संजय वेलंद्विपुत्त, मक्खली गोशालक वे प्रकु कर्चायत के नाम उस युग के श्रमण-नायकों के रूप में उपलब्ध होते हैं । बौद्धों के पालि-त्रिपिटको में इनके परिचय एवं उनको मान्यताओं के सम्बन्ध से बिस्तुत ब्यौरा मिलता है । पर दुर्भाग्यवश आज हमें बुद्ध व निगष्ठ गातपुत्त को छोड़कर अन्य किसी श्रमण-यायक का संघ 4 साहित्य उपलब्ध नहीं होता है । মী ग्रन्थों में जो तमुल्लेख निगण्ठ नातपुत्त व उनके शिष्प्रों से सम्बन्धित मिलते हैं, उनसे यह स्पष्ट हो जाता है




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