भारतीय साहित्य | Bharatiya Sahitya

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Bharatiya Sahitya by डॉ विश्वनाथ प्रसाद - Dr Vishwanath Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जुलाई-प्रक्टूबर १९६२] क--वर्ग का बिवाद और समाधान १३ निर्देश में भी कहीं कही मिलती है। दन्तः एक वर्णोस्चारण स्थान है, पर व्याख्याकार कते ह कि दन्त का तात्पयं दन्तमूल है (दन्तशब्देन दन्तमूलप्रदेशों विवक्षितः, बाल मनोरमा १। १1 ६) 1 कही कहीं दन्त श्रौर दन्तमल दो पृथक्‌ स्थानके रूपमे गणित हुए हैं (याज्ञवल्क्य शिक्षा का वर्णोच्चारणस्थान प्रकरण द्र०) । यह भी ज्ञातव्य है कि टीका ग्रन्थों में तालु आदि के जो लक्षण कहे गए हैं, वे भी कुछ न कुछ अस्पष्ट है, वर्तमान शरीरचिज्ञान में अंगलक्षणों की जो विशदता है, वह इन लक्षणों में प्राप्तव्य नहीं है और उस समयें इस विशदता की कुछ आवश्यकता भी नहीं थी, प्रत्येक गवेषक को यह स्वीकार करना चाहिए । क्या आस्यपाइ्वेभाग” रूप हनुलक्षण सवंथा स्पष्ट है जव हम श्रास्य का शाब्दिकगण-संमत लक्षण को देखते है ? उपय्‌ कत विचार से यह स्पंष्ट हो जाता है कि स्थानों की पहचान शास्त्रानुसार यदि की जाय तो वह बहुत कुछ अस्पष्ट-सी रहती है। उनके मतभेदों पर विचार करने के पहले इस तथूय को जानकर तब आगे विचार करना चाहिए । पूर्वाचार्यो ने यत्‌ स्पशेन तत्स्थानम्‌” [श्रथवंप्रातिशाख्य २।३३ तथा अन्यत्र| कहा है।ये स्थान भी स्वर और व्यंजनों की दृष्टि में विभिन्‍न प्रकार का है, यह तथय तैत्तिरीय प्रातिशार्य २।३१-३३ तथा अन्यत्र स्पष्टतः स्वीकृत हुआ है । इस 'स्पशेन' के विभाग विभिन्‍न दृष्टियों से किये जा सकते है, और शारीरिक कार्य समान रहने पर भी स्थान-करण-प्रयत्न के कथन में विभिन्नता हो सकती है | यह वर्गौकरण करेने की शेली मं भेद के श्रनुसार- होता है, वस्तुतः वहां मतभेद नहीं होता । श्राधुनिक भाषा वेज्ञानिकों को इस तथूय पर ध्यान देना चाहिए। निस्नोक्त उदाहरणो को देविए - ~ ग्रथवंप्रातिरास्य मे जिह्वामूल नामक कोई स्थान स्वीकृत नही हृभ्रा है, पर कारण [स्थान में आत्रात करने वाला शरीरावयव विशेष] के उल्लेख मे अधरकण्ठ का उल्लेख है [१।१८ १६] । ^. स्थानभेद ऊहते मात्र सै वहां वस्तुतः मतमेद हुभ्रा [अ्रतः दोनों में कोई मत अ्रवश्य प्रशृद्ध है] एता सोचना सवत्र संगत नही है । रेफ का स्थान कहीं मूर्धा श्रौर कहीं दन्तमूलं कहा गया है। यह कोई विरोधस्थल नही है । जब रेफ का स्थान दन्तमूलं कहा जात्ता है [याज्ञवल्कयशिक्षा, पृ० १५४ अ्रमरनाथशास्त्रिटीकासह |, जव जिह्वाग्र उसका करण माना जाता है । टीकाकार कहते हे कि जिह्वाग्र से दन्तमूल का स्पशं ग्रौर जिह्वामध्य से मूर्धा का स्पर्श एक ही बात है अतः रेफ का स्थान मूर्धा भी कहा जा सकता है, दन्तमल भी 1 সপ वर्गीकरण [स्थान-करण-प्रयत्न संबन्धी] के भेद से इस प्रकार मतभद हो जाना स्वाभाविक है, पर यहां वास्तव क्रिया समान ही होगी । “ऋ' का स्थान बहुत्र मर्धा माना गया है, पर याज्ञवल्वयशिक्षा में इसका स्थान “जिह्वमूल माना गया है [पृ० १४४] । टीकाकार कहते हूँ कि पाणिनिने प्रक्रियालाघवके लिये [न कि मतभेद दिखाने के लिये] ऋ का स्थान मूर्धा कहा है, वस्तुत इसका स्थान जिहवामूल है और हनुमूल करण है । সস




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