सुभंकरी | Subhnkari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जीवन का परिव्याप्त चित्र है- गाथा जिसकी सब विचित्र है; इन्द्ध भरे हैं जीवन के क्षण- सुख-दुख के हैं नित परिरम्भणा सुख में हर्ष स्वयं खिल पड़ता- दुख में घिरती ही है जड़ता; रूदन-हास का खेल निरन्तर- चलता ही रहता जीवन भर। इसी तरह शुभ ओर अशुभ का- मुखड़ा रहता मन में दुबका; जो विजयी जिस क्षण हो पाता- वही वहाँ निज शौर्य दिखाता। पाप-पुण्य की यही लड़ाई- भू पर हर क्षण होती आई; मन-मानस में इसी तरह के- होते हैं रण मिलन-विरह के। देव और दानव का यह रण- झेल रहा नित मानव का मन; कभी दनुज जब विजयी होता- कष्ट-भार यह भूतल ढोता। शुभंकरी : 7




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