वृत्ति प्रभाकर | Vriti Prabhakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथमः प्रकाल | । | | ५ के करण श्रोत्र, त्वक्‌ चदु, रसन्‌, घ्राण, ओर मन यहष्ठः इन्द्रियाँ हैं। इन्हीं से प्रत्यक्ष प्रमा के छः प्रकार बने हैं--श्रोत्र जन्य ज्ञान श्रोत्रज प्रमा, त्ववाजन्य ज्ञान स्वाच प्रमा, चक्षुजन्य ज्ञान चाक ष प्रमा, रसनेन्दरिय जन्य ज्ञान रासन प्रसा, घ्राणेन्द्रि जन्य ज्ञानः धाणज प्रमा भौर मननेन्दरिय जन्य ज्ञान मानस प्रमा है । इसमे प्रमुख रूप से ज्ञातव्य यह है कि इन्दिय जन्य तथायं जान प्रत्यज्ञ प्रमा है । किन्तु रस्सी मे सपं का यासीपीमे चांदी का ज्ञान इन्द्रिय जन्य होते हुए भी यथार्थ नहीं है इसलिए रस्सी में सपे या सीपी में चाँदी का ज्ञान चाक्ष्‌ षज्ञान तो हुआ, पर उसे चाक्ष्‌ घ प्रमा नहीं कह सक्ते । इसी प्रकार अन्य इन्द्रियो इरा उत्पन्न होने वाला भ्रम ज्ञान भी प्रमा नहीं हो सकता । किन्तु भट्टाचार्य के मत में इन्द्रियाँ प्रत्यक्ष प्रमा की करण नहीं हो सकतीं । वरन्‌ इन्द्रियों के व्यापार ही करण होते हैं । जिससे कायं की उत्पत्ति से देर न लगे वही कारण 'कारण' होना चाहिए। जैसे कि इन्द्रिय का विषय से सम्बन्ध होने पर प्रत्यक्ष भ्रमा रूप काय में देर नहीं लगती, किन्तु अगले ही क्षण प्रत्यक्ष प्रभा रूप कायं उत्पन्न हो जाता है । इसलिए इन्द्रियां नहीं वरन्‌ इन्द्रियों का सम्बन्ध प्रत्यक्ष प्रमाण है । इनके अनुसार सपाल घटका कारण होते हए भी करण नही हो सकेता, वरन्‌ कषालों का मिलना ही करण है। इस प्रकारं भट टाचायं व्यापार सूप कारणों का कारण न मान कर करण और करण को करण न मान कर कारण मानते हैं । यह भी ज्ञातव्य है कि उपयुक्त 8: प्रकार की प्रत्यक्ष प्रमा में श्रोत्रज, त्वाच, चाक्ष ष, रासन और प्राणज, यह पांच तो बाह्य प्रत्यक्ष प्रमा मानी गई हैं और छटवीं मानस प्रत्यक्ष, प्रमा आन्तर है। यह भी ब्रह्मगोचर ओर ब्रह्म-अगोचर के भेद से दो प्रकार की हैं, इसका यथा स्थान निर्धारण करे गे ।




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