ब्रह्मचर्य - दर्शन | Brahmacharya - Darshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
253
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उपक्रम | १
1१)
ब्रहमाचयं की परिभाषा
ब्रहाचये का अर्थ है--मन, वचन एव काय से समस्त इन्द्रियों का संयम
करना । जब तक अपने विचारों पर इतना अधिकार न हो जाए, कि अपनी धारणा
एवं भावना के विरुद्ध एक भी विचार न आए, तब तक वह पृर्ण ब्रह्मचर्य नहीं है ।
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जो व्यक्ति अपने आप पर नियन्त्र०ण नही कर सकता है, वह कभी स्वतन्त्र नहीं ही
सकता । अपने आप पर शासन करने की शक्ति विनां ब्रह्मचयं वेः आ नही सकती ।
भारतीय सरक्षति मे शील को परम भूषण कहा गया है। आत्म-संयम मनुप्य का
स्वत्कृप्ट सदृगुण है ।
ब्रह्मचयं का अर्थ -स्त्री-पुरुष के सयोग एवं सस्पर् से बचने तक ही सीमित
नही है । वस्तुतः आत्मा को अशुद्ध करने वाले विषय-विकारों एव समस्त वासनाओ से
मुक्त होना ही ब्रह्मचयं का मौलिक अर्थ है। आत्मा की शुद्ध परिणति का नाम ही
ब्रह्मचयं द । ब्रद्मचयें आत्मा की निधूम ज्योति है। अतः मन, वचन एवं कम से वासना
का उन्यूलन करना ही ब्रह्मचयं है ।!
स्त्री-संस्पशं एव सहवास का परित्याग ब्रह्माचयं के अर्थ को पूर्णतः स्पष्ट नहीं
करता । एक व्यक्ति स्त्री का स्पर्ण नहीं करता, और उसके साथ सहवास भी नहीं
करता, परन्तु विकारो से ग्रस्त है ! रात-दिन विषय-वासना के बीहड़ वनो में मायमारा
फिरता है, तो उसे हम ब्रह्मचारी नहीं कह सकते । और, किसी विशेष परिस्थिति में
निविकार-भाव से स्त्री को छू लेने मात्र से ब्रह्म-साथना नष्ट हो जाती है, ऐसा कहना
भी भूल होगी । गाँधी ने एक जगह लिखा है--“ब्रह्मचारी रहने का यह अथं नहीं है
कि मैं किसी स्त्री का स्पद्ां न करूं, अपनो बहिन का स्पर्श भा न कहूँ । ब्रह्मचारी
होने का यह अथ है, कि स्त्री का स्पष्ट करने से मेरे मन में किसी प्रकार का विकार
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