शरणागतिरहस्य | Sharanagatirahasya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ शरणागतिरहस्य ज्येष्त होना ही आवश्यक नहीं। मनु तो कहते हैं---महर्षि आज्लिरस बालक ही थे । उन्होंने अपने पिताओंको पढ़ाया और पढ़ाते समय ज्ञानवृद्ध होनेके कारण उनको “ঘুলী 1? यह सम्बोधन किया | 'पितुनध्यापपामास शिकश्षुराज्ञिससः कविः। पुत्रकानिति होवाच ज्ञानेन परिगृह्य तान्‌ ॥ स्वृति तो यहाँतक कहती है कि-अज्ञ पुरुषको बालक, ओर मन्त्र देनेवालेको पिता कहना चाहिये ।' अज्ञ हि वालमित्याहुः पितेत्येव च मन्त्रदम्‌ । अव आता है आजगाम | जब रुङ्कासे बिभीषण श्रीरामके पास गये थे तब 'जगामः (गये) यों कहना चाहिये; आनेका क्या प्रसङ्ग जहो-जहोँ एेसा प्रसङ्ग आया ই না মুদি “জালা? ठेसा ही कहते अये है । ओर तो क्या, भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रके विषयमे भी कहते आ হই ই जगाम मनसा सीताम फिर यहां आजगाम' कासे आजगाम ( आया १) सुनिये-- महर्षि दिखलते है कि विभीषण देवजीव थे} वह तो ङ्कासे वास्तविक सम्बन्ध ही नहीं रखते थे । सदा भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंको ही अपना घर समझते आ रहे थे। ओर घर आनेमें सदा यों ही कहा जाता है कि हम कल रात्रिको दस बजे घर आये, न कि गये । कहावतमें भी यों ही कहा गया है कि 'सर्वेरेका भूला शामको भी घर आ जाय तो भूला नहीं कहलाता ।” भक्त भगवानकी ही विभूति हैं । भगवान्‌ ही उनका




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