पिछड़ी अर्थव्यवस्था का विकास - नियोजन टाण्डा तहसील उत्तर प्रदेश का विशेष अध्ययन | Pichhadi Arthavyavastha Ka Vikas - Niyojan Tanda Tahasil Uttar Pradesh Ka Vishesh Adhyayan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
271
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विभिन्न स्वरुपों में घटित होते हैं। इनमें आधिक क्रियाओं का स्थान सर्वोपरि
होता है जिसके आधिपत्य मेँ ही सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रियाओं का विकास होता है। अतः विकास सामान्य
तौर पर आर्थिक विकास के रुप में संबोधित किया जाता है। इसालिए विभिन्न विचारक एवं नियोजक में
'विकास' शब्द के अर्थ पर मतमेद है।
कभा-कभी विकास को आधिक विकास या प्रगति का पर्याय मानकर, इसके अर्थं के संकुचित कर दिया जाता
ই तथा प्रति व्यक्ति उत्पादन एवं आय में वृद्धि का इसका प्रतीकं मान लिया जाता है । इसी भ्रम मेँ समृद्धि ओर
विकास को भी प्रायः एक सम्मा जाता है| वस्तुतः दोनों शब्दों मै पर्याप्त भेद है । समृद्धि परिवर्तन के मात्रात्मक
पहलू का ओर संकेत करती है जबकि विकास मे मात्रात्मक के साथ-साथ गुणात्मक परिवर्तन कौ भी प्रश्रय मिलता
1? आर्थिक समृद्धि से हमारा अमिप्राय राष्ट्रीय आय के विकास से है। अतः आर्थिक समृद्धि में केवल इस बात
पर बल दिया जाता है कि क्या किसी कालावधि में पहले की तुलना मे मात्रा का दृष्टि से अधिक उत्पादन हो रहा
है या नहीं? इस प्रकार आर्थिक समृद्धि एवं विकास दोनों का सम्बन्ध धनात्मक परिवर्तन से है किन्तु आर्थिक
विकास का क्षेत्र आर्थिक समृद्धि से व्यापक है। सा० पी० किन्डल बर्गर तथा बी० हेरिक की दृष्टि में आधिक
समृद्धि का अर्थ अधिक उत्पादन से है जबकि आधिक विकास का अमभिप्राय अधिक उत्पादन के अतिरिक्त तकनीकी
एवं स्थानात्मक व्यवस्था में हुएं घनात्मक परिवर्तनों से भा है, जिनके कारण यह उत्पादन निर्मित एवं वितरित किया
जाता है। इस प्रकार विकास के अन्तर्गत न केवल प्रतिव्यक्ति आय वरन् आय के वितरण में न्याय, रोजगार की
उपलब्धि तथा जावन की अत्यावश्यक आवश्यकताओं की संतुष्टि आदि की मी ध्यान में रखा जाता है। यही कारण
है कि विना विकास के केवल समृद्धि मात्र से समाज या अर्थव्यवस्था को प्रगति-पथ पर नहीं लाया जा सकता है
क्योकि आर्थिक विकास के विना तो आर्थिक समृद्धि संभव है किन्तु आर्थिक समुद्धि के विना आर्थिक विकास संमव
नहीं है।' इतना ही नहीं वातावरण की गुणात्मकता में वृद्धि, आर्थिक, सामाजिक प्रगति के आधारभूत कारक -
संरचनात्मक एवं संस्थागत परिवर्तन का भा विकास के अन्तर्गत समाहित किया जाता है। वस्तुतः विकास एक
व्यावहारिकं संकल्पना है, जिसका अमिप्राय प्रगति, उत्थान एवं वांछित परिवर्तन से है। विगत वर्षो में विकास से
तात्पर्य आर्थिक क्षेत्र में हुई प्रगति और सुधार से समझा जाता धा, किन्तु आजकल इसका आशय जीवन के विविध
क्षेत्रों में हुए वांछित गुणात्मक एवं परिमाणात्मक परिवर्तनों से लिया जाता है | शिक्षा, प्रशिक्षण, राजनीतिक
जागरुकता, पूँजा-निर्माण के साधनों आदि को भो विकास के अन्तर्गत समाहित किया जाता है। इन्हीं तथ्यों को
ध्यान मे रखकर ब्रहम प्रकाश एवं मुनीस रजा ने विकास को कार्य अथवा कार्यों की एक श्रृंखला या प्रक्रम माना है,
जा जीवन की दशा मे शेघ्र दी सामाजिक, आधिक, राजनीतिक, सस्कृतिक तथा वातावरणीय सुधार करता है
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