उपनिषदों का अध्ययन | Upanishadon Ka Adhyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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উ श्५ धर्मो की स्थापना की । जबतक 'परीक्षण' की उद्धत वृत्ति रहेगी, तबतक धम-ग्रन्थो मे से एसे मतो का निकलना अपरिहार्य ह । करी मस्तक ठेगणा । रागे सन्ताच्या चरणा (सिर श्रुकाकर सन्तो के चरणो मे गिरना चाहिए), इस नम्बर वृत्ति से ही ऋषि-वचनो का अध्ययन होना चाहिए । यदि जप ऋषियो से ज्यादा सयाने हो तो फिर आपके लिए ऋषियो के ग्रथो का अध्ययन करने कौ आवद्यकता ही नही है । आपको ऋषियो के ग्रथो में से कुछ भी जीवनोपयोगी पाथेय मिल सकेगा, ऐसा विश्वास हो तभी उनमे से कुछ हाथ लगेगा, अन्यथा शुष्क ऐतिहासिक कल्पनाओ क सिवा कुछ भी निष्पन्न न होगा । उपनिषदो का तत्त्वज्ञान वैदिक कल्पनाओं के खिलाफ विद्रोह है, इस विचार की जड मे वेदो के दोष दिखानेवाले दो-चार वाक्य ही नही हे, बल्कि यह धारणा है कि वेदों मे कर्म-काड के सिवा कुछ है ही नही । ऐसी हालत में जब- तक हम इस धारणा का विचार नही करते, तबतक ऊपर बताये मत का निरसन नहीं होगा। यह धारणा मुख्यत पाइ्चात्य खोजियो की है और उसीको हमारे यहां के कई विद्वानों ने उठा लिया है। निरे ऐतिहासिक प्रमाण के अलावा दो अरहूग करण दस धारणा कौ जड मे दिखाई देते है (१) सायणादि वेद-भाष्य- कारो कं एकागी भाष्य, ओर (२) मनृष्य कं पूवेज जगली थे यह्‌ विकासवादी कल्पना । इन दोनो कल्पना पर विचार करना जरूरी है । फिर भी वह्‌ एक स्वतत्र रेख का विषय बन सकता हु, इसलिए अभी इसे एक ओर रख दे और सहानुभूति या रसिकता की दृष्टि से देखे तो ऐसा जानपड़ेगा कि वेदों की एसी निन्दा खुद वेदों मे ही की गई है । उदाहरणार्थ, ऋग्वेद के पहले मडल मे दीघे- तमस्‌ ऋषि का निम्न मत्र है-- ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्‌ यस्मिन्‌ देवा अधि विवे निषेदुः । यस्‌ तन्‌ न वेद किमृचा करिष्यति य इत्‌ तद्‌ विदुस इमे समासते ॥




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