ऋग्वेद - संहिता | Rigved Sanhita

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Rigved Sanhita by रामगोविन्द त्रिवेदी वेदंतशास्त्री - Ramgovind Trivedi Vedantshastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ˆ ६ भः), ८ म0,.है अध्या०, २ अनु० ] सदीक ऋग्वेद-संहिला | ६ स्तुहि भ तं विपदिचतं हरी यस्य प्रसक्षिणा । गन्तारा दाशुषो णहं नमस्विनः ॥१०॥ तूत॒जोनो महेमतेऽेभिः परुषितप्युभिः । आयाहि यज्ञमाशुभिः शमिद्धि ते ॥११॥ इन्द्र॒ राविष्ट स्यते रयिं श्णत्यु धारय । श्रवः सूरिभ्यो अश्रुतं वसुखनम्‌ ॥१२॥ हषे ता सूर उदिते हवे मध्यन्दिने दिवः । जुषाण इन्द्र॒ লমিলিন জা गह ॥१३॥ आतु गहि प्र तु द्रव मत्सरा सुतस्य गोमनः। तन्तु तनुष्व पूर्ध्यं यथा त्रिदे ॥१९॥ यच्छक्रासि परात्रति यदववति वृत्रहन्‌ । यद्रा समुद्रं अन्धसोऽवितेद सि ॥१५॥ ~ ----- -- ------ --~~----------- ` * -~-- -- -~-- -----~ १० सतोता, तुम विद्वान और विख्यात इन्दकी स्तुति करो । इन्द्रके शत्रज्ेता दोनों अश्व नमस्कार आर हविवाके यजमानके घरमे जाते र । १९ तुम्हारी बुद्धि महाफल-दायिकरा है । तुम स्निग्ध हो । शीघ्रगामी त्रश्वरे साथ यज्ञम भागनन करो; क्योंकि उस यक्षमें ही तुम्हें सुख हे । १२ श्रेष्ठ, बली और साधु-गक्नक इन्द्र, हम स्तुति करते हैं; हमें घन दो। स्तोताओंकी अधि- नाशो भौर व्यापक अन्न घा यश दो। १३ इन्द्र, सूयदिय होनेपर मैं तुम्हें बुलाता हूँ; दिनके मध्य भागमें तुम्हें बुलाता हू । प्रसन्‍न होकर गतिशील अश्वोंके साथ आओ। १४ इन्द्र, शीद्र आओ और सोम जहाँ है, वहाँ शीघ्र जाओ | दुग्ध-मिश्रित अभिषुत्त सोमसे प्रीत होओ । भनन्‍्तर मैं जैला जानता हूँ, पैसे द्वी पूर्व-छत विस्तुन यज्ञको निष्पन्न करो । १५ है शक्क और वृत्रप्न, यदि तुम दूर देशप्रें हो, यदि समीपमें हो, यदि अन्‍्लरीक्षप्तें हो, तथापि उन सब स्थानोंसे आकर और सोमपान करके रक्षक होभो | य्‌




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