जैन न्याय | Jain Nyaya

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Jain Nyaya by कैलाशचंद्र शास्त्री - Kailashchandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पृष्ठभूमि १. न्‍्यायशास्त्र न्यायशास्तको तर्कश्ञास्त्र, हेतुविया और प्रमाणशास्त्र भी कहते हैं; क्न्ति न्तु धसका प्राचीन नाम आन्वौक्षिकी ह । कौटित्यने ( १२७ ई० पूर्व ) अपने तास्समे मान्वीक्षिको, त्रयी, यार्त मोर दण्डनीति, হুল चार धिधामोका निदे किया हैं और लिप़ा है कि त्रयोर्मे धर्म-अधर्मका, वार्तामें अर्थ-अनर्थका तथा दण्ड- नीतिमें नय-अनयका कथन होता है और हेतुके द्वारा इनके बछावलका अन्वीक्षण फरनेसे लोगोका उपकार होता ह, संकट भीर भनन्दमें यह्‌ बुद्धिको स्थिर रखती ३, प्रज्ञा, वचन ओर कर्मको निपुण बनाती है 1 यह्‌ भान्वीक्षिकी विद्या सर्व विद्याओंका प्रदीप, सब घर्मोका आधार हैं । कोटिल्यका अनुसरण करते हुए जैनाचार्य सोमदेवने ( ९५९ ई० ) भी लिखा हैं कि आन्वीक्षिकी विद्याफा पाठक हेतुओंके द्वारा कार्यकि वलावका विचार करता है, संकटमें खेद-ल्लिन्न नहीं होता, अम्युदयमें मदोग्मत्त नहीं होता ओर बुद्धिकौशल तथा वायकौशलको प्राप्त करता हैँ । किन्तु मनुस्मृत्ति ( अ० ७, হতী০ ४३ ) में आस्वोक्षिकीकों आत्मविद्या कहा है और -सोमदेवने भौ घान्वौ- क्षिकीको अध्यात्म विपयमें प्रयोजनीय वतलाया है । नैयायिक वात्स्यायनने अपने न्‍्यायभाष्यके आरम्भमें लिखा है कि ये चारों विद्यं प्राणियोंके उपकारके लिए कही गयी हैं । जिनमें-से चतुर्थी यह आन्वोक्षिकी १. 'भान्वीदिकी त्रयी वार्वा दण्डनीतिश्चेति विया: ।! पर्माषमों प्रस्यास्‌। अर्थान पार्तायाम्‌ । नयानयौ दयदनीत्थाम्‌ । बलागरले चैतासां हेतुभिरन्वीत्तमाणा लोकस्योप- करोति, व्यप्षनेध्भ्युदये च ुद्धिमवस्थापयत्ति, प्रशावाबयक्रियावैशारध च करोति 1 प्रदीपः स्मेदिचानायुपायः सवेकमेणाम्‌। श्राथयः स्वेधरमायां राश्रदान्वौधिकौ मता ।-की० अथं° १-२। २. श््रान्वीकिकी त्रयी वार्ता दर्ठनीतिस्चेति चसो राजविचाः 1 श्रपीयानो दान्वीद्धिवीं फार्याणं बलाबलं देतुभिविचासर्यति, व्यसनेषु न विषीदति, नाभ्युदयेन विकाय॑ते, समधिगच्छति प्रशावाक्यवैशारथम ॥५६॥-नी० वा०, ५ समुद्देश । ३. श्रान्वीचिक्यध्यात्मदिषये” “1६० नी. वा. ४. मास्तु चतस्रो वियाः पृथक प्रस्थानाः प्राणमृतामनुम्रहाय उपदिश्यन्ते । यासां ववतुर्धूपपान्वीलिफी न्यायविद्या त्स्याः पृथच्‌ प्रधानाः संशयादयः पदप । तेषां पथग्वचनपन्तरेख शष्यास्मविचामाघ्रमिदं रयाद्‌ यथोपनिपदः ।*न्याय- भाष्य १,१. १। ^




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