जैन न्याय | Jain Nyaya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
388
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पृष्ठभूमि
१. न््यायशास्त्र
न्यायशास्तको तर्कश्ञास्त्र, हेतुविया और प्रमाणशास्त्र भी कहते हैं;
क्न्ति न्तु धसका प्राचीन नाम आन्वौक्षिकी ह । कौटित्यने ( १२७ ई० पूर्व ) अपने
तास्समे मान्वीक्षिको, त्रयी, यार्त मोर दण्डनीति, হুল चार धिधामोका निदे
किया हैं और लिप़ा है कि त्रयोर्मे धर्म-अधर्मका, वार्तामें अर्थ-अनर्थका तथा दण्ड-
नीतिमें नय-अनयका कथन होता है और हेतुके द्वारा इनके बछावलका अन्वीक्षण
फरनेसे लोगोका उपकार होता ह, संकट भीर भनन्दमें यह् बुद्धिको स्थिर रखती
३, प्रज्ञा, वचन ओर कर्मको निपुण बनाती है 1 यह् भान्वीक्षिकी विद्या सर्व
विद्याओंका प्रदीप, सब घर्मोका आधार हैं ।
कोटिल्यका अनुसरण करते हुए जैनाचार्य सोमदेवने ( ९५९ ई० )
भी लिखा हैं कि आन्वीक्षिकी विद्याफा पाठक हेतुओंके द्वारा कार्यकि वलावका
विचार करता है, संकटमें खेद-ल्लिन्न नहीं होता, अम्युदयमें मदोग्मत्त नहीं होता
ओर बुद्धिकौशल तथा वायकौशलको प्राप्त करता हैँ । किन्तु मनुस्मृत्ति ( अ० ७,
হতী০ ४३ ) में आस्वोक्षिकीकों आत्मविद्या कहा है और -सोमदेवने भौ घान्वौ-
क्षिकीको अध्यात्म विपयमें प्रयोजनीय वतलाया है ।
नैयायिक वात्स्यायनने अपने न््यायभाष्यके आरम्भमें लिखा है कि ये चारों
विद्यं प्राणियोंके उपकारके लिए कही गयी हैं । जिनमें-से चतुर्थी यह आन्वोक्षिकी
१. 'भान्वीदिकी त्रयी वार्वा दण्डनीतिश्चेति विया: ।! पर्माषमों प्रस्यास्। अर्थान
पार्तायाम् । नयानयौ दयदनीत्थाम् । बलागरले चैतासां हेतुभिरन्वीत्तमाणा लोकस्योप-
करोति, व्यप्षनेध्भ्युदये च ुद्धिमवस्थापयत्ति, प्रशावाबयक्रियावैशारध च करोति 1
प्रदीपः स्मेदिचानायुपायः सवेकमेणाम्। श्राथयः स्वेधरमायां राश्रदान्वौधिकौ
मता ।-की० अथं° १-२।
२. श््रान्वीकिकी त्रयी वार्ता दर्ठनीतिस्चेति चसो राजविचाः 1 श्रपीयानो दान्वीद्धिवीं
फार्याणं बलाबलं देतुभिविचासर्यति, व्यसनेषु न विषीदति, नाभ्युदयेन विकाय॑ते,
समधिगच्छति प्रशावाक्यवैशारथम ॥५६॥-नी० वा०, ५ समुद्देश ।
३. श्रान्वीचिक्यध्यात्मदिषये” “1६० नी. वा.
४. मास्तु चतस्रो वियाः पृथक प्रस्थानाः प्राणमृतामनुम्रहाय उपदिश्यन्ते । यासां
ववतुर्धूपपान्वीलिफी न्यायविद्या त्स्याः पृथच् प्रधानाः संशयादयः पदप ।
तेषां पथग्वचनपन्तरेख शष्यास्मविचामाघ्रमिदं रयाद् यथोपनिपदः ।*न्याय-
भाष्य १,१. १। ^
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