मानस- पीयूष प्रथम सोपान बालकांड | Manas-piyush Pratham Sopan balkand

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Manas-piyush Pratham Sopan  balkand by महात्मा श्री अंजनीनन्दन शरणजी -Mahatma Sri Anjaninandan Sharanji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दोहा १११ ४-७ 9 । श्रीमद्रामचन्द्रचरणो शरण । ५४०४ बालकांड गूढ़ ध्वनि द्वारा संकेत किया गया है। यहाँ पद-प्रक्ालन सेवा स्वयं रघुनाथजीने की है। ठीक है । पर एकान्त में मिलने के कारण स्वयं करना उचित है। हनुमानजी अथवा कोई श्राता भी साथमें नहीं है । कोई मी साथ होता तो वसिछ्डजी न आ सकते थे । यह भी कहा जा सकता है । इन प्रसंगोंके स्पष्ट बणनके लिये जो कठिनता हृदयमें चाहिए वह गोस्वामीजीके कोमल ट्ृद्यमें नहीं है अतः उनसे भी इन प्रसंगोंका स्पष्ट कथन न करते बना | टिप्पणी-- २ तुम्ह त्रिमुबन गुर बेद बखाना । इति । क च्रिमुबन गुर का भाव कि आप सबके गुरु हैं अतः कथा कहकर त्रे लोक्यवासियोंका उपकार करना आपका कत्तंव्य है सो कीजिए । ख पाँवर का जाना अर्थात्‌ अपनेसे वे कुछ नहीं जान सकते जो आप कहेंगे वही वे जानेंगे । भाव कि सब जीवोंको छताथे कीजिए सर्बोपर कृपा करके सब पदाथे अकट कर दीजिए । पुनः झान जीव पावर का भाव कि आप पामर जीवोंमें नहीं हैं आपकी गणना तो ईश्वरकोटिमें है कारण कि आप मोक्षाधिकारी हैं अर्थात्‌ स्वयं जीवन्मुक्त रहते हुए दूसरोंको मुक्ति प्रदान करते हैं । वे० भू० । ग उमाजी के प्रश्नोंका प्रकरण यहां समाप्त हुआ । बिश्वनाथ मम नाथ पुरारी । त्रिमुवन महिमा बिदित तुम्हारी 1१०७.७। उपक्रम है और तुम्ह त्रिमुबन गुर० उपसंहार है । प० प० प्र०--जबतक पति-पत्नी-भावसे प्राथना करती रहीं तबतक रामकथा कहनेका विचार शिवजी- के मनमें नहीं आया । तुम्द त्रिमुवन गुर कहनेसे अब गुरु-शिष्य- संबंध प्रस्थापित होने पर कथाका उपक्रम करेंगे । सब प्रश्न यहाँ समाप्त हो गये । अन्तमें इसपर समाप्त करके जनाया कि दूसरा कोई इनका यथाथ उत्तार दे नहीं सकता । उपक्रममें बिश्वनाथ और त्रिमुवन शब्द हैं उपसंदारमें भी च्रिमुवनणुर है । उनके चुप हो जानेपर उत्तरका झारंभ हुआ | कं उमा-परदन-मकरण समाप्त हुआ । ५ थक प्ररनातर-श्रकरणार मे प्रदन उमा के? सहज सुद्दाई । छल-बिददीन सुनि सिव मन भाई ॥ ६ ॥। दर हिय रामचरित सब आए । प्रेम पुलक लोचन जल छाए ॥ ७ ॥। शब्दाथ--आए -- कलक पढ़े स्मरण हो आए | थे - श्रीपावंतीजीके छुलरहित सहज ही सुदर प्रश्न सुनकर शिवजीके मनको भाए ॥ दू ॥ हर श्री- शिवजी के हृदयसें सब रामचरित आ गए । प्रेमसे शरीर पुलकित हो गया और नेत्रोंमें जल भर गया 1७1 दिप्पणी--१ प्रश्न उमाके इति । गोस्वामीजी सबंत्र प्रश्न शब्दकों स्त्रीलिंग ही लिखते हैं । यथा प्रश्न उमाके सहज सुद्दाई यहां धन्य धन्य तब सति उरगारी । प्रश्न तुस्हारि सोहि अति प्यारी । ४.६४.र। इत्यादि । ख सहज सुहाई अधथांत्‌ बनावदी नहीं यथा उसा प्रश्न तब सहज सुद्दाई । १.११३ | छुलरहित होनेसे सुहाई कहा । अपना अज्ञान एवं जो बातें प्रथम सतीतनमें छिंपाये रही थीं यथा मैं बन दीखि राम प्रमुताई । अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई वह सब अब कह दीं इसीसे छल बिहीन कहा । यथा रामु कहा सबु कौसिक पाहीं । सरल सुभाउ छल नाहीं । २३७ २ । ईश्वरकों छल नहीं भाता यथा चिमल मन जन सो मोहि पावा । मोहिं कपट छल छिद्र न भावा ।४.४४.४। ये प्रश्न छल बिद्दीन हैं अतः मनको साए। ख प्रश्न सुद्दाये और मन भाये हैं यह आगे शिवजी स्वयं कहते हूँ उमा प्रश्न तब सहज सुद्दाई । सुखद संत संमत मोहि माई । ११४. _ के-१७२१ । के-१६६१ १७०४ १७६९ । कर-छ० को० रा० | वि अत




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