शुद्ध कविता की खोज | Shuddh Kavita Ki Khoj

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रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।

'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।

सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया ग

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कविता और शुद्ध कविता १३ प्राकृतिक छूटा के तटस्थ वर्णन को यह परम्परा भवभूति के समय तक भी शेष थी। ऋषि दशम्बूक जहाँ तपस्या कर रहे थे, उस वन मे बहनेवाली एक नदी का वर्णन करते हुए भवभूति ने लिया है : इह समदशझुस्ताक्रान्तवानी रवी रुत्‌ भ्रसवसुरमिहीतस्वच्छतोपा वहन्ति । फलभरपरिणामश्यामजम्दूनिकुन--~ स्सलनमृखरभूरिसोतसो निर्तरण्यः । अर्थात्‌ यहाँ मदमाते पक्षियों के भुण्डो से आक्रान्त, वेतलताओ से गिरते हुए पुष्षो से मुगन्धित जलवाले करने बहते हैं । उन भरनी के जल में वृक्षों से टप-टप गिरते हुए काले-काले जामुन एक बनोंखे सगीत की सृष्टि कर रहे हैं। किन्तु, जव सस्त मे रीतिवाद की परम्परा चली, यह वर्णन उतना तटस्थ नदी रहा । इस विकार की चरम परिणति हिन्दी के रीतिकालीन काव्य मे हुई। किन्तु, चौनौ भौर जापानी कवियों का प्रदृति-वर्णन इस दोष से दूपित नही हुआ। उद्दीपन के रूप में प्रश्ति का उपयोग चीनी कवियों ने भी किया था, किन्तु, चीन और जापान मे, तव भी, प्रद्ृति बराबर स्वाधीन रही और मनुप्य के व्यवितत्व बी तुजना में उसका व्यक्तित्व बरावर अधिक विशाल बना रहा। चीनी कवियों में प्राद तिक शो मा वा वर्णन लेवल तटस्य ही नही है, वल्कि, उन कविताओं में कवि यह भी सकेत दे देते हैं कि प्राकृतिक शोभा से मिलनेवाला सुख बिलकुल वैयविनक सुख है। पहाड़ों पर मेरी संपदा कया है ? उनके शिखरो पर बहुत-से बादल बसते हैं। ‡ मगर इनक! श्रानन्द केवल मेरे लिए है। महाराज [ उन्हें पकड़ कर में ^ श्रापके पाल नहीं भेज सकूंगा। বাসী ভু, জি, लोयाड में बसन्‍्त ज्यादा देर दिकता है । चारो झ्लोर उसको बहार है। नरकट फे पत्ते झरने लगे हैं। आाडू के पत्ते भी झर रहे है, मगर वे प्रभी लुप्त नहीं हुए हैं । छप्पर के कोने मे घुसने के लिए गोरंये झ्ापस में झगडते हैं1 जंगलों मे पक्षी पाँतो बांध कर नहों, बेतरतीतब्र उड़ रहे हैं। याड, वेना,




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