धर्म क्या है पहला खंड | Dharma Kya Hai Pehla Khand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द्म रद इन्द्याणां हि चरतां यन्मनोध्लुविधीयत । तद॒स्य हरति प्रज्ञां वायुनावशभिवाम्भसि ॥ गीता अ० २ इन्द्रियां विषयों की ओर दौड़ती रहती हैं । ऐसी दशा में यदि मन भी इन्द्रियों के पीछे ही पीछे दौड़ता है तो वह मनुष्य की बुद्धि को इस प्रकार नाश कर देता है जैसे हवा नौका को पानी के अन्दर डुबा देती है । इसलिए जब कभी मन बुरी तरह से विषयों की ओर दौड़े-झपनी स्वाभाधिक चंचलता को प्रकट करे तभी उसको बुद्धि और विवेक से खींच कर के उसकी जगह पर ही उसको रोक देवे। कृष्णजी कहते हैं -- थतो यतो निश्चरति मनश्चब्वलमस्थिरम्‌ । ततस्ततो नियम्येतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ॥ गीता अ० ६ अथांत्‌ यह चंचल और अस्थिर मन जिधघर जिधर को भागे उधर ही उधर से इसको खींच लावे शोर इसको अपने चश में रखे । मन की गति किघर को होती है ? या तो यह विषयों क॑ खुख की ओर दौड़ेगा अथवा किसी के प्रेम और मोह में दौड़ेगा अथवा किसी की निन्‍्दा-स्तुति ढेष या किसी को हानि पहुंचाने की झोर दौड़ेगा । ज़ो शुद्ध मन होगा वह ईश्वर की श्रोर दौड़ेगा उसी में एकाग्र होगा । अथवा दूसरे का उपकार सोचेगा । इस लिए मनुष्य का मन छापनी वेशवान्‌ गति से सदोव दौड़ा ही करता है। इसको यदि एक जगह जाकर इश्वर में लगा देवें तो उसी का नाम योगाभ्यास है । रन्तु मन का रोकना बहुत कठिन है। इस विषय में परम मगवद्क्त वीरवर झजुंन ने सगवान कृष्ण से कहा था --




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