धूप के पखेरू | Dhup Ke Parviru

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Dhup Ke Parviru by पुरुषोत्तम तिवारी - Purushottam Tiwariशिवरतन धानवी - Shivratan Dhanavi

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शिवरतन थानवी - Shivratan Thanavi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गजल [अकाल पर] श्रंगरा रही है रेत को ज्वर की जलन, धुल गये, श्राकाणके, वागी हिरन ॥ रिक्त आमाशय की कोरी भित्ति पर, भूख ने लिखा, प्रलय का भावकथन ।। मिरवंमिया वादे त्तो सहते आये हैं, दिस तरह सह लें, धरा का वांभपत ॥ छाटता हूं दिन, औंवी उपेक्षित हांडियाँ গে গু रत, विप के গালমন | कांड | ने मिलते-पार्थ के बेजोड शर के ने मिल्मी भीष्म देही की तपत ॥ দুগ পানর मूल के दृष्टि में उदते रहे গা दुल्दस ॥ दाता शरीर भी का कितने ।।




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