क्रान्ति - बीज | Kranti - Beej
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
178
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)५ / सम्बक् जागरण ले विसर्जन---कास, कोध का
दोपहर तप गयी है। पलाश के वक्षो पर फूल अगारो की तरह चमक रहे हे ।
एक सुनसान रास्ते से गुजरता हूँ । बाँसो का घना झुरमुट है और उनकी छाया
भली लगती है।
कोई अपरिचित चिडिया गीत गाती है। उसके निमत्रण को मान वही रुक
जाता हूँ।
एक व्यक्ति साथ है। पूछ रहे है. क्रोध को कंसे जीते, काम को कंसे
जीते ?' यह बात तो अब रोज-रोज पूछी जाती है। इसके पूछने में भी भूल है, यही
उनसे कहता हूँ।
समस्या जीतने को है ही नहीं। समस्या मात्र जानने को है।
हम न क्रोघ को जानते हैँ और न काम को ।
यह अज्ञान ही हमारी पराजय है।
जानना जीतना हो जाता है।
क्रोध होता है, काम होता है, तब हम नही होते है । होश नहीं होता है, इसलिए
हम नही होते हं ।
दस मूर्ज्छामे जो होता है, वह बिलकुल यात्रिक है ।
मृच्छ टूटते ही पछतावा आता है, पर वह व्यथं है , क्योकि जो पष्ठता रहा
है, वह काम के पकडते ही पुन सो जाने को है।
वह न सो पावे--अमूर्च्छा बनी रहे---जागृति--सम्य्क-स्मृति बनी रहे तो
पाया जाता है कि न क्रोध है, न काम है ।
यात्रिकता टूट जाती है और फिर किसी को जीतना नही पडता है। दृश्मन
पाये ही नही जाते हूं ।
एक प्रतीक कथा से समझे । अधरे मे कोई रस्सी साँप दीखती है। कुछ उसे
देखकर भागते है, कुछ लडने की तैयारी करते है । दोनो ही भूल मे है, क्योकि दोनो
ही उसे स्वीकार कर लेते हू । कोई निकट जाता है और पाता है कि साँप है ही नही ।
उसे कुछ करना नही होता, केवल निकट भर जाना होता है!
मनुष्य को अपने निकट भर जाना है।
मनुष्य में जो भी है, सबसे उसे परिचित होना है ।
हि ॥ से लडना नही है और में कहता हूँ कि बिना लडे ही विजय घर आ
जाती है।
स्व-जित्त के प्रति सम्यक जागरण ही जीवन-विजय का सृत्र है।
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