नागरी प्रचारिणी पत्रिका | Nagri Pracharini Patrika

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Nagri Pracharini Patrika  by कृष्णानंद - Krishnanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पाश्िनिकालीन मनुष्य-नाम २६६ उपस्थित ये ( सभापवं १०।१६ ) | यह इस बात का संकेत देता है कि संभवतः शेवल्ष और सुपरि भी यह्षों के नाम थे ! 'शेव' प्राचीन जेदिक शब्द है. जिसका अर्थ था घन या समृद्ध | जो धन दें वह शेवक् | शेवल् यक्ष के लिये धनद की तरक सांक नाम हुआ । फिर शेवलदत्त के अतिरिक्त काशिका ने शेबलेंद्र- दत्त नाम का भी उदाहरण दिया है। शेवलदत्त वह बालक हुआ जिसके जन्म के लिये शेबल का आशीर्वाद प्राप्त किया गया दहो। शेबल का स्वामी शेबलेद्र हुआ, भर्थात्‌ यक्षराज कुबेर या वेश्रवण को संज्ला शेवलेंद्र होनी न चाहिए थी कुबेर के झआाशोर्बाद से प्राप्त वालक फे लिये केवल यत्त को भक्ति करनेबाले मृदस्थ लोग ऐसा नाम चुनते रदे होगे । शेषलद्र या कुवेर भी एक यक्ष की संज्ञा थी। भरहुत स्तृप के खंभे पर कुबेर यक्ष की मूर्ति ( कुपिरों यख्रो ) पाई गई है। यरि शेबलंद्रदत्त से 'शेबल भोौर इंद्र के आाशोर्बाद से उत्पन्न', यह तात्य लिया ज्राय तो भो शेवल एक देवता का नाम ठहरता है। बौड़ों के भाटानारीय सुत्त ( दीघनिकाय, ३२) पे यक्खरजों की सूची में इंद्र, सोम, वरुण, प्रजापति, मणिभद, आलावक आदि नामों में इंद्र भौर वरुण भी यक्ष दैँ। बरुण का नाम पाणिनि के इसी सूत्र में आया है। ऐसा ज्ञात होता दै कि यक्षरूप में वरुण की मानता पाणिनि-काल्न में होतो थी। झर्यमा का बच्चों के जन्म से घनिष्ठ संबंध था, ऐश्वा अ्रथववेद्‌ के 'नारी सुखप्रसव' सूक्त के प्रथम मत्र (अथवं० १।११/१ ) से विद्त द्ोता है, जिपतमें कहा है कि प्रसन के समय अयमा चुर होता की तरद भच्चे के भटपट जन्मल्ञेने $ क्लिये 'बषढ! का बोल बोक दे | इससे यमादत्त नाम की बात समझ में भरा सकती है । पाणिनि के इस सूत्र ( रोषल सुपार विशाक्ञ बरणायमादीनां दनीयान्‌ ५।३.८४ ) पर काव्यायन का एक वार्तिक ই--লবধ্যানীনা নূবীমাংন্বান্তন- सन्धीनाम्‌ ; अर्थात्‌ बदण भादि पूवपद्बले सामों मे जव तीसरे स्वर के बादवाले स्वरों का लोप क्रिया जाय, तो बर्णादि शब्दों का बह स्वरूप लेना चाहिए जो उत्तरपद के साथ होनेवाजल्ी क्रिसी स्वर संधि से पहले का हो। यहाँ एक छोटा सा प्रभ उठता है कि कात्यायन ने वरुणादीनां? क्यों कहा ? 'शबलादीनां! कद्दते तो ठीक होता, क्‍योंकि पाणिनि का सत्र शेवल से आरंभ होता है। हमारा अनुमान है कि पाणशिनि से पूर्व के किसी व्याकरण में 'बरुणायेमादीनां' सूत्र ही पढ़ा गया था और यह बातिक उसी काक्ष का




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