शरीफों का कटरा | Sharifon Ka Katra

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Sharifon Ka Katra by मन्मथनाथ गुप्त - Manmathnath Gupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शरीफो का कटरा १७ क्या वात है, यह रमा स्वय ही नही जानती थी। फिर भी वह बोली-- कोई काम पड गया होगा । कई दफे दफ्तर मे काम ज्यादा पड जाता है | तुम जाओ, सवेरे आना । रमा जानती थी कि सवेरे आना कहने का कोई अर्थं नही होता, क्योकि आाया कभी सवेरे नही जाती थी । चाहे जितना काम पडे, आकर वही बहाने बताती थी--बच्चे की तवीयत ठीके नही थी, मादमी रान को शराब पीकर आया था, उससे वक-झक करके बहुत रात मे सोई थी । वही दैनन्दिनि । फिर भी एक मत्र की तरह रमा रोज कहती थी और जैसे पत्थर के बुत मत्र सुन लेते हे, उसी तरह आया भी उसे सुन लेती थी । पर आज रमा ने सचमुच दिल से यह कहा था, क्योकि उ कोई भरोसा नही था । मौसी ने ठीक ही कहा था कि अत्यन्त आदि काल से पुरुष नारी के साथ अन्याय करता आया है। राम और कृष्ण ऐसे गृहस्थो तक ने अन्याय किया, बुद्ध ऐसे महान ग्रहत्यागी साधकों ने भी अन्याय किया, किसोने नारी को उसकी प्राप्य मर्यादा सोलहो आने नही दी । सव उसे गौण, हेय, दोयम दर्जे की मानते रहे । सब उसकी इज्जत मे बट॒टा लगाते रहे और यह समझते रहे कि वे अपनी सभ्यता मे चार ही नही चौदह चाद लगा रहे है । आया चली गई, तो रमा को ऐसा लगा जैसे वह महाशून्य मे लटक- कर रह गई, लटककर भी नही, क्योकि लटकने मे किसी चीज से सम्बन्ध तो वना रहता । वह्‌ जंसे भारणशून्य हौ अन्तरिक्ष मे अस्थिर की पकडमे आई हुई गृड्डी की तरह कभी ऊपर, कभी नीचे होती रही । मुन्ना मी अज दगा दे गया। बोतल मृह मे डालते ही सो गया । रोज की तरह उसने सैकडो शरारते नही की, वह भी इस समय राजा बेटा वनकर रह गया । आज वह शरारते करता, तो सूनापन कुछ तो भरता । वेचारा मुन्ना | वह क्‍या जाने कि मा किस प्रकार अपने जीवन को सूना पा रही थी, किस प्रकार उसके दिल मे घुकुर-पुकुर और एक जव्यक्त भय सुगबुगा रहा था। मुन्ना को सुलाकर रमा अरुण की प्रतीक्षा करने लगी। खाना तो उसी समय वह पका चुकी थी, जब मुन्ना टहलने के लिए गया हुआ था । अब तो सिर्फ खाना गर्म रखने की




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