प्रवचन - पारिजात | Pravachan Parijat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ की प्राप्ति कैसे हो? इद्लीलिए आचार्यो ল मोक्षमागं के अन्तगंत जो तत्त्व हैं उन तत्त्वों का उल्लेख किया ! इनको जो व्यक्ति अपने जीवन में शान्ति के साथ जान लेता है और अपने में होने वाली वेभाविक प्रक्रिया के बारे सें अध्ययन करता है वह व्यक्ति स्वभाव को प्राप्त करने का जिज्ञासु कहलाता है। इसके बिना उसे जीवत्व को प्राप्ति सभव नहीं है; क्‍योंकि जहूं व्यक्ति माँगता ही जा रहा है और उसे अपने स्वरूप का भान नही है। एक याचक व्यक्ति एक सेठ के पास गया, वह सेठ उस व्यक्ति के पिता का दोस्त था। उसे करुणा आती है और वह कहता है कि बेठा ! तुम्हारे पिताजी का मेरे साथ घनिष्ठ संबंध था। हम दोनो दोस्त थे; किन्तु व्यवसाय के कारण क्षेत्रान्तरित हो गये है, लेकिन में तुम्हें पहचान गया हूँ। तुम्हारे पिताजी मुझे बता कर गये थे कि मेरा. लड़का जब बड़ा हो जाये, तो घर मे जो धन पैसा गाढ़ रक्ा है वह बाद मे उसे बता देना | अब तुम बडे हो गये हो अतः में बता रहा हूँ। इस तरह जब उसे अपने स्वरूप का ज्ञान होता है तो वह याचना करना बन्द कर देता है और अपने घर को टटोलता है। इसी प्रकार हम इस समय विभावरूप परिणमन कर रहे हे, परन्तु इसका अथं यह नही है कि अब अनंतकाल तक हम याचक ही बने रहं ¦ हम सेठ-साहूकार भी बन सक्तं है, हम अपने पेरों पर खड़े भी हो सक्ते हे, हमारी शक्ति अनंत ह, किन्तु उस शक्ति का उद्घाटन आवश्यक है ओर उस शक्ति का उद्घाटन हम तभी कर सकेंगे जबकि वर्तमान में, मेरी यह विभावरूप स्थिति हो गयी है”---ऐसा विश्वास कर लेंगे ! अन्यथा ध्यान रक्खो उसका भी उद्घाटन नही होगा । अपने-आप को जो व्यक्ति बंधा हुआ अनुभव नही करता वह्‌ मुक्ति की जिज्ञासा तीन काल में भी नहीं रखेगा, यह भी ध्यान रक्खो । मुत के ऊपर विश्वास उसी को हो सकता है जो बहुत जकडन का अनुभव करता है क्‍योंकि “बघसापेक्षेव मुक्ति. मोक्ष”। बन्ध की अपेक्षा हो मुक्ति रहती है बल्कि यो कहिये बध का अभाव ही मुक्ति है। इस बध का अभाव अपने आप नहीं होगा। इसलिए वतंमान में इस जीव का समूचा विलोम परिणमन हो चुका है। एक द्रव्य में प्रत्यक गुण की जो पययि हं वे पर्ययं गुणों के साथ क्षणिक तादात्म्य सम्बन्ध रखती है । और “गुणसमुदायवद्‌ द्रव्य” इस प्रकार जो सम्बन्ध द्रव्य के साथ गुण का है वही सम्बन्ध पर्याय का भी द्रव्य के साथ है। ये सारे-के-सारे आपस




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