मेरी प्रिय कहानियां | Meri Priy Kahaniyan

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Meri Priy Kahaniyan by मोहन राकेश - Mohan Rakesh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न १६. मेरी प्रिय कहानियां है। हवा में जे धिपर जाते । मेरे अन्दर भी जरें ब्ियरन लगते । में उसका हाय फिर द्वाय में कस लेती । चुपचाप उसकी बाॉयों में देखती “रहती । मगर कहीं सवार नजर न आती । मांगों भी टसती-सी लगती । तो मन की होती है,” बह कहती । “अपने से ही पानी होती है । वाहर से फौच फिसीकों पुणी दे सकता है ? ' बहुत स्वाभाविक ढंग से व कहती, मगर मुझे लगता शूठ बोल रही है। उसकी मुसकराती आंखें भीगी सी लगतीं । एक ठण्टी सिह॒रन मेरी उंगलियों में उतर आती । “वह आजकल कहां है ? ” में पूछ लेती । “कौन ?'' वह फिर भूठ बोलती । “चही, संजीव ।”” क्या पता ?'” उसकी भींहों के नीचे एक हत्की-सी छाया कांप जाती, पर वह उसे आंखों में न आने देती । “साल-भर पहले कलकत्ता में था” “इघर उसकी चिट्ठी नहीं आई ? ”” नहीं । कर तूने भी नहीं लिखी ? ”” “क्यों ? “' वह हाथ छुड़ा लेती । दरवाज़े की तरफ देखती जैसे कोई उघर से भा रहा हो । फिर मपनी कलाई में कांच की चूड़ियों को ठीक करती । आंखें मुंदने को होतीं, पर उन्हें अ्यत्न से खोल लेती । मुझे लगता उसके होंठों पर हरकी-हत्की सलवर्टे पड़ गई हैं। “वे सब वेवकफी की बातें 'थीं,” वह कहती । दे मन होता उसके होंठों और आंखों को अपने बहुत पास ले आआऊं। उसकी ठोड़ी पर ठोड़ी रखकर प्रूछूं, 'तुझे विश्वास है न तू खुश रहेगी ? मगर मैं कुछ न कहकर चुपचाप उसे देखती रहती । वह मुसकराती सर कोई घन गुनगुनाने लगती 1 ३... उठ जाती । ममी मुझे दूंढ




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