आध्यात्मयोग और चित्त विकलन | Adhyaatm Yog Aur Chitta-vikalan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
30 MB
कुल पष्ठ :
287
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२ अध्यात्मयौग और चित्त-विकंलन
है कि यदि समाज के लिए उसे प्राय भी देने पड़ें तो भी उसे हिचंकना नहीं चाहिए।
ऐसी स्थिति में समाज के नियम उसे अटल और शाश्रत प्रतीत होते हैं। उसे लगता
है, समाज की सुस्थिति सृष्टिजन्य संकल्प है, अतः समाज की उन्नति उसके लिए. अन्तिम
लक्ष्य है और उसके नियमों का पूर्णतया प्रतिपालन उसका परम कन्तेव्य है। ऐसी
स्थिति में जीवन के স্সল্স उच्चतर ध्येयों को वह समाज के लिए ही, उसके विकास
एवं संस्थिति के लिए ही ग्रहण करता है और उनकी प्राप्ति के लिए सतत सच्ष्ट रहता
है। किन्तु इस प्रकार का जीवन-लक्ष्य एक आदशमात्र है; उसका अनुसरण करना
कठिन है । इसी श्राधार पर बह कहता दै--श्रादशं प्राप्त करना सम्भव नहीं है, उसके
आसपास ही पहुँचा जा सकता है ।* इस प्रकार व्यक्ति समाज के नियम तथा समाज
के विकासोत्कष-सम्बन्धी तत्वों के प्रति विशेष जागरूक रहता है |
बहुधा यह देखने में आया है कि व्यक्ति अपने ही समाज को अन्य समाजों से
श्रेष्ठ मानता है, अपने ही समाज के नियमों को वह देवी समझता है। व्यक्ति दूसरे
समाजो पर अपने समाज कौ धाक जमाना चाहता है | इस कारण वह जिस सुख की
खोज में आगे बढ़ता है, उसे ही भूल जाता है। उसके स्थान पर वह यह मानने
लगतां है कि समाज जैसे एक कल्पित ध्येय के लिए ही श्रस्तित्व रखता दहै ! बह चेष्टा
करता है कि दूसरे लोग भी समाज का सिक्का मानें। इस विचारधारा में पड़कर
मानंव-समाज के अनेक उत्साहीं व्यक्तियों ने साम्राज्यों की स्थापना की। यही भावना
“ब्रिटेन राज्य करे, उसकी ( उसके सिन्धु की ) लहरें राज्य करें', पिता-मूमिः एवं
'मातृ-भूमि/* आदि उद्घोषणों का रूप धारण कर विकसित हुईं | समाज के सुख-साधन
में ही उसका सुख है |! ऐसा सममकर वह समाज के भीतर रहना पसन्द करता है |
अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता को भी तिलांजलि देकर वह सीमाबद्ध होता है और अपनी सारी
शक्तियाँ समाज की उन्नति के लिए. लगाता है। फलतः समाज में उपकरणों की
भरमार हो जाती है, संपत्ति बढ़ती है ओर सुख-सामग्री से दुनिया भर जाती है। उसकी
इन्द्रियानुभूतियाँ जिन-जिन वस्तुओं तक पहुँच पाती हैं, उनकी उन्नति में वह लग
जाता हे--प्रथ्वी, समुद्र, आकाश सभी पर उसका आत्तंक छा जाता है। प्रकृति उसे
प्रत्येक स्थल पर आह्वान करती-सी प्रतीत होती है। उसके आह्यान को स्वीकार कर
वह दृश्य प्रपंच को बश में करता है। इस प्रकार व्यक्ति विषय-सुख या भौतिक सुख
की प्राप्ति के लिए प्रकृति की सारी शक्तियों को अ्रपनी प्रज्ञा की श्रु्डला में बाँध लेना
चाहता है। वह प्रकृति के अनुकूल अपने को परिवर्तित नहीं करता, बरन् अपनी इच्छा
के अनुकूल प्रकृति को मोड़ देना चाइता है |
इस प्रकार की विचारधारा के अनुयाथी पश्चिम के रहनेवाले हैं। वे प्रवृत्ति के
मृत्तिमान अवतार हैं। वाह्य विषय उनके लिए. प्रधान है। गति उनके लिए साधन
ओर साध्य दोनों है। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए वे प्रयल्ल करते हैं। वे
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