पेरिस की नर्तकी | Paris Kii Nartakii

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Paris Kii Nartakii by विश्वम्भरनाथ शर्मा - Vishvambharnath Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पेरिस की नतंकी “घर पर क्‍या रहें, क्या घरा हे घर पर ? कोई बात करने वाला भी तो हो ! बहुएँ बेचारी ओर परेशान रहती हैं | खुलकर उठने बैठने नहीं पातीं; हम भी बंधे से रहते हैं | यहाँ रहने से हमें भी आराम हे। यह अच्छा--या वहाँ रह कर तकलीफ उठाना अच्छा १? “आर सब लोग रहते हैं या नहीं ! वे सब केसे रहते है ? युवक बोला-- “रहते होंगे । उन्हें अच्छा लगता हे--रहते हैं, हमें नहीं अच्छा लगता । अरब सरकार इन्हें हमारे यहाँ रहने से इतनी परेशानी है कि यहाँ इस बखत खाना पहुँचाना पड़ता है--बस ! इतनी सी बात के लिए यह हमें वहाँ रखना चाहते हैं |” “हमें कौन परेशानी हैे--हमें कहो तो दिन में चार दफे श्राव जावें, और आते जाते ही हैं। घर मे थोड़े ही पड़े रहते हैं | काम तो यहीं है ।” युवक ने कहा । गुड़ेत बोल उठा--“देखो बबुआा, एक बात तो हम भी कगे | काका के यहाँ रहने से तुम्हारी खेती गाँव ऊपर रहती है। इतना गल्ला; सरकार, गाँव में किसी के खेतों म॑ नहीं होता, जितना इनके खेतों म॑ होता है। सो बात क्‍या है ? काका यहाँ हर समय मोजूद रहते हैं । क्या मजाल जो घास का श्रेकुर भी खेतों में जम जाय। हर बखत खुरपी लिये घूमा करते हैं। रात में इनके मारे कोई जानवर भी नहीं आने पाता । रात भर में चार दफे उठकर चक्कर लगाते हैं ।” “अरे मैकू भदया, तब भी नुकसान हो ही जाता है। परसों सुअर हमारी सकरकन्द खा गये | ऐसा रंज. हुआ कि क्या कहें । कहाँ तक पहरा दे । सुअरों के मारे नाक म॑ दम हे | हमारे मालिक ब्राह्मन ठहरे, शिकार करते नहीं। नहीं तो बन्दूक हई है, किसी दिन रात में यहाँ बैठ जाँय और दो-एक को लुढ़का दे, बस फिर न आवे | आधा बिसुवा र




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