बकुल - कथा | Bakul Katha

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Bakul Katha by आशापूर्णा देवी - Ashapoorna Deviहंसकुमार तिवारी - Hanskumar Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लेकिन शम्पा एक दिन आप ही बुआ के पास क़बूल कर गयी; “कुछ प्रेम- वेम न रहे, मेरे लिए कोई हा किये बैठा न रहे, मुझे देखकर धन्य न हो, यह अच्छा नहीं लगता बुआ, समझी ? मंगर वास्तव में प्रेम में पड़, ऐसा लड़का नहीं दिखता जब “वास्तविक प्रेम” का प्रश्त ही नहीं, तो जैसे-तैसे में ही 'चाम खोजने क्या नुक्रसान है ? और शम्पा एक भोंदू-जसे प्रोफ़सर के प्रेम में पड़ गयी। प्रोफ़ेसर यद्यपि विवाहित था । “तो क्‍या हुआ ? शम्पा ने कहा, “मैं कुछ ब्याह तो करना नहीं चाहती उससे ? उप्तको ज़रा बेवक़ फ़ बनाने की बात---” द प्रोफ़ेतर को वेवक्रूफ बनाने के बाद कछ दिनों से कालेज-लाइबेरी के लाइत्रेरियन छोकरे से चक्कर चल रहा है । अनामिका ने फिर एक बार लिखने में जी लगाने की चेष्टा की थी, कि फ़ोन बज उठा । कोई ताज्ञा सप्रतिभ कण्ठ बोल उठा, “ज़रा शम्पा को बुला दीजिए तो !” बुला दिया । शम्पा ऊपर आयी । बोली, “बाप रे, तुम्हारे तिनतत्ले पर चढते-चढ़ते जान निकल आयी । देख, फिर किसने बक-बक करने के लिए बुलाया !* यह लो, नीचे तुम्हारी एक चिट्ठी पड़ी थी का ` ` टेबिल पर लिफ़ाफ़ा रखकर बुआ की ओर पीठ और दीवार की ओर मुंह करके शम्पा रिसीवर को कान-मृंह से लगाकर खड़ी हो गयी । : लिफ़ाफ़े को खोले बिना ही अनामिका देवी उसे हाथ से उलटने-पलटने लगीं । संक्षली-दीकीचिद्री। | द बहुत दिनों के बाद आयी है। सँझली-दी अब चिट्ठी-पत्री नहीं लिखतीं। किन्तु अनामिका ही कितनी लिखती हैं ? अन्तिम चिट्ठी कब दी है, याद भी नहीं आता । लेकिन रोज़-रोज कितनी तो चिट्ठटियाँ लिखती हैं। ढेरों । जिस- तिसको | सेझली-दी बड़ी स्वाभिमानिनी है। बेगार टालनेवाली चिट्ठी नहीं डे 1 हब का बकुल-कवा `




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