जीवाजीवाभिगमसूत्र | Jivajivabhigama Sutra

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Jivajivabhigama Sutra by मिश्रीमल जी महाराज - Mishrimal Ji Maharajराजेंद्र मुनि - Rajendra Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाव मलयधिरि ने इसे तृतीय अंग स्थानाय का उपाग कहा है |? इस भागम इते ह कि यह्‌ जोवॉजीवाधिगम नामक उपांग राग रूपी विष को उतारने के लिए जेच्ठ संत |. अमान हैं! हैव रूपी भाग को शान्त करते हेतु जलपुर के समान हैं। अशान-तिमिर को नष्ट करने के लिए सूर्य मान है । संस्तारक्षी संसुद्र को तिरने के लिए सेतु के समाल है। बहुत प्रयत्त द्वारा शेय है एवं मोक्ष को भाप्ठ कराते को भगो शक्ति से युक्त हैं। वृत्तिकार के उक्त विशेषणों से সর সালমা মহত হব হী জালা ই। है... उन, स्थिर भगवंतों ते तीर्थंकर प्ररूपित तत्वों का अपली विशिष्ट प्रजा द्वारा पर्यालोचत करके, उल पर = प्र्षण किया है।' 7 ০75 ..._. उक्त कथन द्वारा यह्‌ मभि्यक्त किया गया है कि पस्तुत भागम के अणेता स्थविर भगवंत हैं। उन्‌: | स्यमि ने लो कुछ कहा है वह जिनेश्वर देवों रा कहा गया ही है, उनके द्वार भनु है, उनके द्वारा भणीत है, उनके द्वारा भ्रूपित हैं, उनके द्वारा प्रख्यातः है, उनके द्वारा भाषणं है, उनके द्वारा परशप्त है, उनके द्वा, ` यह झागम शब्दरूप से स्थविर भगवंतों द्वारा कथित है किस्तु भर्थरूप से तीर्थकरों हारा उपदिष्ट होने से दवादर्शाषी की तरह ही प्रमाणभूतं है । स प्रकार भरस्तुत भ्रागम की प्रामाणिकता प्रकट की भई है। मंगभरुतो के पनुकूल होने से ही उपांग्रश्रुतों की प्रामाणिकता है । : 1 । श्रुत:की पुरुष|के रूप में कल्पना,की गई । जिस प्रकार पुरुष के अंग-उपांग होते हैं उसी तरह श्रुत-पुरुष के भी बारह अंग पझौर बारह उपांगों को रवीकार फिया गया । पुरुष के दो पाँव, दो जंघा, दोछउर, देह का . प्रग्रवर्ती तथा पृष्ठवर्ती भाग (छाती भौर पीठ), হী बाहु, ग्रीपां गौर मस्तक--यगे बारह अंग माने गये हैं। इसी तरह ध श्रुत-पुरुष के झाचारांग সাহি बारह अंग हैं। अंगों के सहायक के रूप में उपांग होंते हैं, उसी तरह ंगभुत के ` सहायक--पूरक के रूप में उपांग श्रुत की प्रतिष्ठापना की गई) बारह अंगों के बारह उषम (माम्य किये शये । वैदिक परम्परा में भी वेदों के सहायक या पूरक के रूप में बेदांगों एवं उपांगों को मान्यता दी गई हैं जो शिक्षा, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष तथा कर्प के नामं से प्रसिद्ध ह । पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्मशास्त्रों की उपांग के रूप में स्वीकृति हुई। अंगों भौर उपांगों के विषय-तिरूपण में सामंजस्य अपेक्षित है जो स्पष्टतः प्रतीतं नहीं होता है। यहू विषय विज्ञों के लिए भ्रवश्य विचारणीय है। ॥ तामकरण एवं परिचय | । & प्रस्तुत सूत्र का नाभ जीवाजीवाभिगम है परन्तु ्रजीव का संक्षेप्र दृष्टि झे तथा जीव का. विस्तृत रूप से प्रतिपादन होने के कारण यह 'जीवाभिगम' नाम से प्रसिद्ध है। इसमें भगवान्‌ महावीर भौर गणघर गौतभ के प्रश्नोत्तर में रूप में जीव भौर भजीब के भेद भोर श्रभेदों की चर्चा है। परम्परा की दृष्टि से प्रस्तुत झ्ागम में २० उद्देशक थे . १. झतो मदस्ति स्थाननाम्नों रागविषपरममंत्ररूप द्वेषानलसलिलपूरोपम॑ तिमिरादित्यभूत॑ भवाब्धिपरमसेतुर्महा- प्रयत्नगम्यं निःशेयसावाप्त्यवन्ध्यशक्तिक॑ जीबाजीवा भिगमनामकमुपाजुमू ।__-“मेलयगरिरि वृत्ति २.. इहे खलु जिणमसं जिणाणुमयं जिणाणुलोम॑ जिणप्पणीतं जिणपरूवियं जिणक्खायं जिणाणुचिष्णं जिनपण्णत्तं लिणदेसियं जिणपसत्थं प्रणुष्वीश्च तं सदृहमाणा तं पत्तियमाणा त्तं रोयमाणा येरा भगवतो जीषाजीजाभिगम- णामर्कयणं प्ष्णवहंसु । -- जीवा. सूत्र १ नक এত কি ४ 7 7 দার অন লাস ক মদ জি দক কম বি দখা জী কা हुए मः : ` অথনী সার श्रंडा, प्रीति, रुचि, प्रतीति एवं गहरा विश्वास करके जीव झौर जीव सम्बन्धी प्रध्ययन को... श उपदिष्ट है, यह पद्यान्न ,की तरह प्रशस्त भौर हितावह है तथा परम्परा से जिनत्व की प्राप्ति करांते बाला है।ठै ` । 2858 ০555 स. ध अ




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