अरणिक मुनि | Arnik Muni
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
64
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पहला परिच्छेद । १९
तरहकी चिन्ताओंकी लहरें, उठने लगीं।
सोचते-सोचते वे व्याकुल होकर कह उठे; “पुत्र ।
तू मेरा इकलोता बेटा हे । मेरे ओर कोई सन्तान
नहीं । मेरा इतना बड़ा राज्य कोन भोगेगा ?
क्या राञ्य भोग तेरे भाग्यमें नहीं लिखा है. १
पुत्नने कहा,-- पिताजी । आप क्यों भूलते '
हँ १ यह राञ्य तो क्या, तीनों लोकका राज्य
भी आत्म-कल्याणके सामने तुच्छ है ॥
राजाने कहा,--पृत्र | बस तू ऐसी-ऐसी
बाते कहकर मुझे ओर न जला। तू मुझे
छोड़ना चाहता है; पर में पिता: होकर अपने
इकलोते पुत्रको केसे छोड़ सकता हू ? जब
तूही राजपाटको छोड़ देगा, तो फिर में किस
लिये इसके साथ चिपटा रहू गा ? यदि तू इसे
छोड़नाही चांहता है, तो ले, में तेरे आगे-आगे
चलता हु । अब में भी आत्म-साधनमें ही
लगू गा ॥ में , अपनेको बड़ा भाग्यशाली सम-
भता हं कि तेरे जेसा पुत्र पाकर मुझे आत्म-
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