अरणिक मुनि | Arnik Muni

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Arnik Muni by पं. काशीनाथ जैन - Pt. Kashinath Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला परिच्छेद । १९ तरहकी चिन्ताओंकी लहरें, उठने लगीं। सोचते-सोचते वे व्याकुल होकर कह उठे; “पुत्र । तू मेरा इकलोता बेटा हे । मेरे ओर कोई सन्तान नहीं । मेरा इतना बड़ा राज्य कोन भोगेगा ? क्या राञ्य भोग तेरे भाग्यमें नहीं लिखा है. १ पुत्नने कहा,-- पिताजी । आप क्यों भूलते ' हँ १ यह राञ्य तो क्या, तीनों लोकका राज्य भी आत्म-कल्याणके सामने तुच्छ है ॥ राजाने कहा,--पृत्र | बस तू ऐसी-ऐसी बाते कहकर मुझे ओर न जला। तू मुझे छोड़ना चाहता है; पर में पिता: होकर अपने इकलोते पुत्रको केसे छोड़ सकता हू ? जब तूही राजपाटको छोड़ देगा, तो फिर में किस लिये इसके साथ चिपटा रहू गा ? यदि तू इसे छोड़नाही चांहता है, तो ले, में तेरे आगे-आगे चलता हु । अब में भी आत्म-साधनमें ही लगू गा ॥ में , अपनेको बड़ा भाग्यशाली सम- भता हं कि तेरे जेसा पुत्र पाकर मुझे आत्म-




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