संगीत शास्त्र पराग | Sangeet Shastra Parag
श्रेणी : संगीत / Music, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8.67 MB
कुल पष्ठ :
241
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about गोविन्द राव राजुरकर - Govind Rav Rajurkar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नादाधीनमतो जगत् ९
नाद के अति सुक्ष्म, सुक्ष्म, अपुष्ट, पुष्ट एवं कृल्िंम ऐसे पांच भेद माने जाते
है। किन्तु संगीतशास्त्र का जहाँ सम्बन्ध है वहाँ उसके मुख्यतः तीन भेद ही प्रचार
में है जिनके नाम मन्द्र, मध्य एवं तार है, जिसके विषय में सगीत रत्नाकर में कहा
गया है : दे
व्यवह्ारे त्वसी त्रेघा हृदि मन्द्रोडभिधीयते ।
कण्ठे मध्यो सुध्निं तारो द्विग्ुणश्वोत्त रोत्तर: ॥।
भावार्थ---अ
व्यावहारिक दृष्टि से मन्द्र नादध्वनि का स्थान हृदय में मध्य नादध्वनि का
स्थान कण्ठ में व तार ध्वनि का स्थान तालु में है, एवं इनमें परस्पर प्रभाव द्विगुण
है, अर्थात् मन्द्र नाद-ध्वनि से दुगुना-कँचा मध्य नादध्वनि, मध्य नौद ध्वनि से दुगुना
ऊँचा तार नादध्वनि है ।
उपर्युक्त विवेचन से यहें स्पष्ट है कि नाद जड़-चेतन, चर-अचर तथा मानव
एवं अन्य प्राणी-शरीर सर्व में व्याप्त है । सारांश यही है कि सम्पूर्ण जगत नाद के
अधीन है ।
क्या मुनि भरत एवं प॑ शारंगदेव-कथित नाद-ध्वनि संगीतोपयोगी हो सकती
है ? इस सम्बन्ध में “आहत एवं अनाहत” नाद का विचार करना आवश्यक है ।
घपंण भथवा भाघात से जो नाद प्राप्त होता है उसे “भाइत' नाद कहते है व बिना
घर्षण-भाषात से प्राप्त होने वाले नाद को ““अनाहत” नाद कहते है । आहत नाद
लौकिक व्यवहार में उपयोगी है किन्तु “मनाहत ” नाद योग-साधना की अनुश्ुति है !
गत: यहाँ “भाहत नाद का ही विचार अधिक उपयुक्त है । भाइत नाद भी दो
“प्रकार का है : (१) संगीत्तोपयोगी एवम् (२) संगीत निरूपयोगी ।
संगतोपयोगी नाद को भरत, शारगदेव आदि सगीतशास्त्रकारों ने “श्रुति”
सज्ञा दी है व “भ्रूयते इति श्रुति” ऐसी परिभाषा की है । “श्र” सस्क्त घातु का अर्थ
'सुनना-श्रवण-करना' होता है, अर्थात् जो सुनाई जाये उसे श्रुति कहा जाय । किन्तु
सगीतोपयोगी नाद अथवा श्रुति की यह परिभःषा अपर्याप्त सी है । इसका विश्लेषण
यह है कि तेलघारा के समान अविच्छिन्न तथा समगति में जिसका चलन है, जो स्थिर,
स्पष्ट है एवम् मधुर है, उसे संगीतोपयोगी नाद अर्थात् ध्वनि कहते है । ऐसी क्रिया में
ध्वनि विच्छिन्नता या ध्वनि का टूटना अवांछनीय है,। कारण यह है कि अविच्छिन्न
एवम् समप्रमाणगति ही उसे मधुरता प्रदान करती है व जिस ध्वनि में सधुरता है
उसे ही सगीतोपयोगी कहा जाना श्रेयस् है । इसका स्पष्टीकरण निम्नांकित है :--
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