जयपुर खानिया तत्त्वचर्चा | Jayapur Khaniya Tattvacharcha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
491
श्रेणी :
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No Information available about फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)का £ ओर उसका समाधान ३७९
उसकी चावित ग्यवितरूपमे तही आ सकती, जिसके हारा शक्ति व्यक्तिरूपमें भातो है या जिप्तके विना शक्ति
व्यकवितरूपमें नहीं आ सकती वही वहिरग कारण या निमित्त कारण ह या वहो बलाधान निमित्त ह ।
यह ठीक है कि लोहा ही घडीके पूर्जोकी शक्ल घारण करता है। यह भी ठीक है कि लकडी या
लोहा ही विविध प्रकारके फर्नीचरके रूपमे परिणत होते ह । यह भौ ठीक ह कि मेटीरियन्से ही मकानका निर्माण
होता है | यह भी ठीक हैं कि विविघ प्रकारके रसायनिक् पदार्थपरिं ही विभिन्न प्रकारके अणुत्रम आदि बनते हैं,
किन्तु ये वस्तुएँ जिन मनुष्यो या कलाकारोके द्वारा विभिन्न रूपको धारण करती हैं, यदि वे न होवें तो वैसा
नही हो सकता, मनुष्य या काकार ही उनको उन उन खूपोमें छानेसे सहायक होते हैं यही उनका वलाधान
निमित्तत्व ह । कठाक्रारका अर्थ हो यह हैं कि वह उसको सुन्दर रूप देवे । यहं कार्यं मनुष्यसे भौर केवल
मनुष्यसे ही सम्भव ह । जहां तक मेंटीरियलकी बात ই वह तो सुन्दर ओर मही दोनो ही प्रकारकी वस्तुओमें
समानरूपसे रहता है ! धडियोके मूत्योमें तरतमता लोहेकी बात नही हं, किन्तु मुख्यता निमति कला-
कारकी हूँ ।
प्राचीन नाटय साहित्यकार भरतमुनिने अपने नाट्यशास्त्रमें रसक्रा लक्षण करते हुए लिखा है कि--
विभावानुभाचव्यभिचारिसयोगाद् रसनिष्पत्ति ।
इससे स्पष्ट हैं कि मानव हुदयमें विभिन्न प्रकारके रसोकी उत्पत्ति ही बहिरग साधनोकी देन हं ।
यदि कभी सिनेमा देखनेवालेसे पूछा जाय कि खेल कैसा था तव वह जो उत्तर देगा वह विचारणीय हैं ।
इसी प्रकार आत्मीय जनकी मृत कायाका देखना, बाजारोमें घूमते हुए सुन्दर सुन्दर पदार्थोकोी देखना आदि
व्यावहारिक वाते हं जिनपर गभीर विचारकी जरूररत ह । क्या सिगेमा्मे जो कुछ भी सुनने या देखनेमें आता
है वह व्यर्थ है या वही देखनेवालेके हृदयोको प्रफुल्लित करनेमें सहायक होता है ? आत्मीय जनकी मृत कायाकों
देखना व्यथ हैं और जो शोक টা ই মা হাল उत्पन्न करनेमें वह सहायक है ? यही बात बाजारू चीजोके
सम्बन्धर्में चिन्ततोय हैं ।
जैन तत्त्वज्ञानका विद्यार्थी यदि ज्ञान और ज्ञेयके रूप पर तथा विषय ओर कृषायके रूप पर विचार
करेगा तब उसको मालम होगा कि यह पर , पदार्थ ही केवल जो ज्ञेय न रह कर विपय बन जाता है और
आत्मामें कपाय उत्पन्न करा देता है, ऐसी स्थितिमें भी आश्चर्य है कि हमारे आध्यात्मिक महापुरुषोका ध्यान
इसकी तरफ नही जा रहा है ।
इस विषयमें महपि समन््तभद्र, अकछक ओर विद्यानन्दकी मान्यताएँ मनन करने योग्य है---
दोषावरणयोहानिनिरकेषस्त्यत्िशायनात् ।
क्वचिद्यथा स्वहेतुस्यो वदिरन्तमलक्षय ॥४॥
इस कारिकाके द्वारा स्वामी समन्तभद्र कहते हैं कि किसी आत्तमाम्में दोष ( अज्ञानादि विभावभाव )
तथा आवरण ( पुदगल कर्म ) दोनोका अभाव ( ध्वस ) रूपसे पाया जाता है, क्योंकि उनके हानिक्रममें
भ्रतिशय ( उत्तरोत्तर अधिक ) हानि पाई जाती है। जो गुणस्थानोके क्रमसे मिलती है | जैसे सुवर्णमें अग्निके
तीव्र पाकद्वारा कीट व कालिमा अधिक अधिक जलती है तो वह सोना पूर्ण छुद्ध हो जाता है ।
कारिकाकी व्याल्या लिखते हुए शकाकी गई है कि आवरणसे भिन्न दोप और क्या वस्तु हैं ? दोषको
आवरण ही मान लिया जावे तो क्या हानि हं? तव भकलकदेव उसका समाधान करते हुए किते हैं---
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