पद घुँघरू बाँध | Pad Ghungharu Bandh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
180
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१/अह अज्ञान है-प्रेम ज्ञान है
प्रिय चदना,
प्रेम। पत्र मिला है। हृदय जब तक प्रेम से झंकृत न हो, तब तक एक
रिक्तता और अभाव का अनुभव होता है। प्रेम के अतिरिक्त आत्मा की पूर्णता
की अनुभूति और किसी द्वार से नहीं होती है । प्रेम के अमांव में आत्मा में
क्या है ? अह और केवल नह मैं! और केवल 'में' । यह 'ैं' एकदम मिथ्या
है । छाया की भी वह छाया है | उसको उपस्थिति हो र्क्तिता है । यह है, यही
अभाव है । अह की छाया प्रेम के प्रकाश में तिरोहित हो जाती है। और तब
जो शेष रह जाता है, वही ब्रह्म है । प्रेम साधना है, ब्रह्म सिद्धि है ।
मैं कहता हूँ. प्रेस शान है। और अज्ञान क्या है ? अहूं अज्ञान है। और
जब अह ही ज्ञान की खोज करने लगता है तो वैसा ज्ञान महा अशान बने जाता
ह। अह की खोज से पांडित्य आता है । पाडित्य सृक्ष्मतम परिप्रद.दै-1 प्रज्ञा
का जन्म अहं से नही, प्रम से होता हे । इसकिए ही अहकार प्रेम से सदा भय-
भीत रहता है ! वह राग कर सकता है, विराग कर सक्ता है । लेकिन, प्रेम ?
नही । प्रेम तो उसकी मृत्यु है ।
प्रेम न राग है न विराग । प्रेम परम दोतरागता हे ।
प्रेम सम्बन्ध नही है । प्रेम है स्वय की स्थिति । राग किसी से होता है ।
विराग भी किसी से होता है | प्रेम स्वय में होता हे । वह है सहज स्फुरणा--
अकारण और अप्रेरित। और इसीलिए राग भी बाँधता है, विराग भी बाघता
है । प्रेम सक्त करता है) प्रेम मुक्ति हे ।
७
धर्म क्या है ?
सग्रठना या साधना ?
धर्म सगठित होते ही घर्म नहीं रह जाता है। सग्रठन के स्वार्थों की दिदा
धर्म की दिशा से भिन्न ही नहीं, विपरीत भी है। इसलिए धर्म के नाम पर खडे
सप्रदाय वस्तुत धर्म की हत्या में ही सलग्न रहते हैं । धर्म हे वेयक्तिक चेतना-
जागरण । संप्रदाय हे, भीड का शोषण । धर्म के लिए चेतना का भीड से, समूह
से स्वतन्त्र होना आवश्यक है, जबकि सप्रदाय चेतना की ऐसी स्वतत्रता का शत्रु
ही हो सकता है । संप्रदायों की दासता मे केवल वे ही हो सकते हैं जो कि स्वय
के मित्र नही है । परतत्रता शत्रु है । स्वतत्रता हवी मित्र है ।
[प्रति साध्वी হলনা]
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