गोम्मटसार (कर्मकाण्ड)भाग १ | Gommatasara Vol 1

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आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये - Aadinath Neminath Upadhye

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कैलाशचंद्र शास्त्री - Kailashchandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० गो० कर्मकाण्ड कार्यवश बाजारसे जाता है और कोई सुन्दरी उसपर मोहित होकर उसकी अनुगामिनी बन जाती है तो इसमें पुरुषका क्या कतृत्व हं । कर्मी तो बह स्क्रो है, पृष्ष तो उसमें निमित्त मात है। उषितो यका पता भी नहो रहता 1 समयसारमें कहा है-- जीवपरिणामहेदु कम्मत्त पुरगला परिंणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि ॥ ८६ ॥ ण वि कुव्वदि कम्मगुणे जोबो कम्म॑ तहेव जीवगुणे । झष्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोण्ह पि॥ ८७ |॥ एदेण का*णेण दु कत्ता आदा सएण भावेण । पुम्गलकम्मकदाणं ण दु कत्ता सब्वभावाण्ण ॥ ८८ ॥ अथं--जीव तो अपने रागद्वेघ[दिर्व भाव करता है। उन भावोंकों निभित्त करके कमंछूय होने के योग्य पुद्गल कर्मछप परिणत हो जाते हैं। तथा कर्मरूय परिणत पुद्गल ज फनोन्मुल होते हैं, तो। उनका निमित्त पाकर जीव मो रामदरेषादिल्प परिणमन करता है। यद्यति जीव भौर पृद्गल दोनों एक दूसरेकों निमित्त करके परिणमन करते हँ तथापिन तो जीव पुद्गल कर्मोके गुणोंका कर्ता है और न শহুযান্তক্ষম जीवके गूणोंका कर्ता है। किन्तु दोनों परस्परमें एक दूसरेको निमित्त करके परिणमन करते है। अतः आत्मा अपने भावोंका हो कर्ता है, पुदूगल कमंक्रत समस्त भावोंका कर्ता नहीं है । सांख्यके दृष्टान्तसे किन्हीं पाठकोंको यह अम होनेकी सम्भावना है कि जैनवर्म भी सांख्यकी तरह जीवको सर्वथा अकर्ता और प्रकृतिकी तरह पुदुगलको हो कर्ता मानता हूँ। किन्तु ऐसी बात हही है 1 सांख्यका पुरुष तो सर्वथा अकर्ता है. किन्तु जैनोंकी आत्मा सर्वथा अकर्ता नहीं है । वह आत्माई स्वः भाविक भाव ज्ञान दर्शन सुख आदिका ओर वैभाविक भाव राग-द्रेष आदिका कर्ता है, न्तु उनकी निमिना करके पुद्गरोमे जो कर्मरूप परिणमन होता है उसका वह कर्ता नहीं है। सारांश यह है कि वास्तव तो उपादान कारणको ही किसी वस्नुका कर्ता कहा जाता हैं। निमित्त कारणमें जो कर्ताका व्यवहार किया जाता है वह तो व्यावहारिक है, वास्तविक नहीं है । वास्तविक कर्ता तो वही है, जो स्वयं कार्यहूप परिणन होता हैं। जैसे घटका कर्ता मिट्टी ही है कुम्हार नहीं । कुम्हारकों जो लोकमें घटका कर्ता कहा जाता है उसका केवल इतना ही ताल्नयं है कि घट पर्यायमें कुम्हार निमित्त मात्र है। वास्तवमें तो घट मिद्रोंड्मा ही एक भाव है गत: वही उसका कर्ता हैं। जो बात कतृत्वक्े सम्बन्धर्में कही गयी है वही भोवलृत्वके सम्जन्धमें मी जाननी প্রান্ত | जो जिसका कर्ता नहीं वह उसका भोक्ता कैसे हो सकता है। अतः आत्मा जब पुदूगल कर्मोका कर्ता हो नहीं तो उनका भोक्ता कैसे हों सकता है। वह अपने जिन राग-दूं पादि रूप भावोंका संसारदशामें कर्ता है उन्हींका भोक्ता भी है। जैसे व्यवहारमें कुम्हारकों घटका भोक्ता कहा जाता है क्‍योंकि घटकों बेचकर जो कुछ कमाता है उससे अपना और परिवारका पोषण करता है । किन्तु वास्तवमें तो कुम्हार अपने भावोंकों हो भोगता है! उस्ती तरह जीव भी व्यवहारसे स्वकृत कर्मोक़े फल- स्वरूप सुख-दुःखादिका भोक्ता कहा जाता है । वास्तवर्मे तो अपने चैतन्य मावोका हो भोक्ता है इस प्रकार कर्तृत्व भौर भोवषतृत्वके विषयमें निश्चय दृष्टि ओर व्यवहारदृष्टिके भेदसे द्विविध व्यवस्था है । निरचय मौर व्यवहार- डर आगमरमें कथनकी दो शैलियाँ प्रचलित हैं उनमें-से एकको निश्चय और दूसरीको व्यवहार कहते हैं। ये दोनों दो नय हैं । नय वस्तुस्वरूपको देखनेकी दृष्टिका नाम है। जते हमारे देखनेके लिए दो आँखें हैं वैसे ही वस्तुस्वरू'कों देखनेके लिए भी दो नयरूप दो दृष्टियाँ हैं। एक नयदृष्टि स्वाश्रित है अर्थात्‌ वस्तुके




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