न्याय-दीपिका | Nayaya Dipika

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Nayaya Dipika by दरबारीलाल जैन - Darabarilal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राक्कथन ३ काफी हाथ बढाया है । दिगम्बर श्रौर उवेताम्बर दोनो सम्प्रदायोमे परस्पर जो मतभेद पाया जाता है वह दार्शनिक नही, आगमिक है | इसलिये इन दोनोके दर्शन साहित्यकी समृद्धिके धारावाहिक प्रयासमे कोई अन्तर नही आया है । दशेनशास्वका मुख्य उद्‌ श्य वस्तु-स्वरूप व्यवस्थापन ही माना गया है । जैनदर्शनमे वस्तुका स्वरूप अ्नेकान्तात्मक (ग्रनेकघमत्मिके ) निर्णति किया गया है। इसलिये जैनदर्शनका मुख्य सिद्धान्त श्रनेकान्तवाद (अनेकान्तकी मान्यता) है। अनेकान्तका अर्थ है--परस्पर विरोधी दो तत््वोका एकत्र समन्वय । तात्पयं यह है कि जहाँ दुसरे दशंनोमे वस्तुको सिर्फ सत्‌ या असतू, सिर्फ सामान्य या विशेष, सिर्फ नित्य या अनित्य, सिर्फ एक या अनेक और सिंफं भिन्‍न या श्रभिन्ने स्वीकार किया भया है वहाँ जैन दर्शनमें वस्तुको सत्‌ और असत्‌, सामान्य और विशेष, नित्य और अनित्य, एक और अनेक तथा शिन्‍न और अभिन्‍न स्वीकार किया गया है श्रौर जैनदर्शनकी यह सत्‌-ग्रसत्‌, सामान्य विज्ञेष, नित्य-अनित्य, एक-अनेक और भिन्‍न-अ्रभिन्‍नरूप वस्तुविषयक मान्यता परस्पर विरोधी दो तत्त्वोका एकत्र समन्वय को सूचित करती है । बस्तुकी इस अनेक धर्मात्मकताके निर्णयमे साधक प्रमाण होता है। इसलिये दूसरे दर्शनोकी तरह जैनदर्शनमे भी प्रमाण-मान्यताको स्थान दिया गया है ! लेकिन दूसरे दर्शनोमे जहाँ कारकसाकल्यादिको प्रमाण माना गया है वहाँ जैनदर्शनमे सम्यम्ज्ञान (अपने और अपूर्व भर्थके निर्णायक जन) को ही प्रमाण माना गया है क्योकि ज्ञप्ति-क्रियाके प्रति जो करण हो उसीका जेनदर्शनमे प्रमाण नामसे उल्लेख किया गया है । ज्ञप्तिक्रियाके प्रति करण उक्त प्रकारका ज्ञान ही हो सकता है, कारकसाक- ल्यादि नही, कारण कि क्रियाके प्रति म्रत्यन्त प्र्थात्‌ भ्रव्यवहितरूपस साधक कारणको ही व्याकरणशास्त्रमे करणसज्ञा दी गयी है' और १ 'साधकतम कारणम्‌ ।--जैनेन्द्रव्याकरण १।२।११३।




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