पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand) निर्भीक थां । इस वर्ग में राजा राममोहन राय, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, ईश्वरचंन्द्र विद्यासांगर तथा
बंकिम चन्द्र आदि थे । विदेशी सत्ता की. दमननीति के,काले बादलों में राष्ट्रीय गौरव की विद्युत
उत्पन्न करने की शक्ति ऐसे ही राष्ट्र निष्ठ व्यक्तियों में थी जहाँ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने
धर्म के परिष्कार से जागरण का मंत्र फूंका वहाँ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने साहित्य के माध्यम से
प्राचीन गौरव श्रौर झाधुनिक दुरवस्था की श्र जानता . का ध्यान आ्राऊृंष्ट किया । महादेव
गोविन्द रानाडे, दादा भाई नौरोजी श्र सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने भी राष्ट्रीय दृष्टिकोण से राजनीति
में नए परिप्रच्य रक्खे । राष्ट्रीय प्रयत्नों के ये रूपाकार विदेशी. ढंग पर अवश्य थे परन्तु उनके
भीतर आत्मा भारतीय ही थी ।
सन् १८५४ में तत्कालीन वायसराय लाड डफरिन के शासन काल में इंडियन नेशनल
कांग्रेस का संगठन बम्बई में हुभ्ना । इसका उद्देश्य शिक्षित समाज की श्राकांक्षा्रों की अभिव्यक्ति
और उसका परिचय शासन के अधिकारियों को कराना था । एक दृष्टि यह भी थी कि इसके
द्वारा पाश्चात्य वेधानिक तंत्र की शिक्षा भारतीयों को दी जा सके । इस संस्था में भारतीय
राजनीतिक व्यक्तियों का. संहयोग भी प्राप्त: किया गया किन्तु : धीरे-धीरे इसमें राष्ट्रीयता की
विचारधारा भी प्रवेश करने लगी । परिणामस्वरूप इंसके सदस्यों में पश्चिमीकरणण करनेवाली
राजनीतिक श्रौर सामाजिक विचारधाराओं के साथ-ही-साथ एक पश्चिम विरोधिनी धारा भी
'. अ्न्तःप्रवाहिनी सरस्वती की भांति प्रवाहित होने लगी । क्रमश: राष्ट्रीय विचारों आर उक्तियों
में इतनी प्रखरता राई कि शासन को उससे विरेक्ति होने लगी । यहाँ तक कि शासनिक
अधिकारियों को उसमें भाग लेने तक का निषेध किया गया। सर सैयद अ्रहमद यद्यपि मुस्लिम
लीग को लेकर अ्रलग हो गए थे, तथापि देश के अनेक राष्ट्रचेता मुसलमान लोकमान्य तिलक
और लाला लाजपत राय के साथ भारत की राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गए थे ।
विदेशी राजनीतिक श्रभिसंघियों में यद्यपि हिन्दी भाषा की दुर्दशा हो रही थी तथापि
उसने सम्पूर्ण उन्नीसवीं शताब्दी में श्रंग्रेज़ी राजनीति और पाश्चात्य सभ्यता के प्रभावों से भारत
के सांस्कृतिक मृत्यों की रक्षा की । यह सत्य हैं कि शताब्दी के प्रारम्भ में भंग्रेज़ी राजनीति ने.
उर्दू और फ़ारसी को ही श्रधिक प्रश्नय देते हुए. हिंदी की उपेक्षा की किन्तु हिंदी राष्ट्रीयता की.
भावना के समानान्तर पंजाब, राजस्थान, बु्देलखणुड, रीवां, काशी श्रादि स्थानों पर विकसित
होती रही । उत्तरकाल में उसने श्रपने को युगानुरूप ढाला श्रौर एक नवीन स्फूति के साथ अपनी
विभिन्न शैलियों में सष्ट्रीयता के भावों का विकास एवं प्रसार किया । इस दिशा में भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र और उनके सहयोगियों ने दृढ़ता के साथ काय किया । भारतेन्दु ने लिखा--
निज भाषा : उन्नति भ्रहै, . सब उन्नति -को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान के, सिटत न हिय को शल ॥।
ट' पर निबन्ध लिखते हुए प्रतापनारायर मिश्र ने लिखा
हमें अति उचित है कि इसी घटिका से श्रपनी टूटी-फूटी दशा सुधारने में जुट जायें ।
विराट भगवान के सच्चे भवत बने, जैसे संसार का सब कुछ उनके पेट में हैं, वैसे ही हमें भी.
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