चित्रशाला द्वितीय भाग | Chitrashala Dwitiya Bhaag
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
214
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)स्वतंत्रता 8
खाती খাঁ, शोर अच्छे-से-अ्रच्छा पहनती थीं। पति भी उन्हें युवा,
सुंदर, स्वस्थ तथा सुशिक्षित मित्रा था। घर में सास-ससुर इत्यादि
भी उसे आँखों का तारा ही समभते थे। परंतु फिर भी प्रियंचदा
देवी असंतुष्ट रहती थीं । उनके प्रसंतोपके कह कारणः थे । वह
अपने को धर में सब स्त्रियों से अधिक सुशिक्षित सममती थीं
चात भी ठीकु थी । सुखदेवप्रसाद के घर में कोई खी प्रियंवदा के
समान पदी-जिखी न थी । अ्रतवएव उन्हें अपने पढ़े-लिखे होने का
बढ़ा अभिमान था। उनकी यह इष्छा थी कि ঘহ জী জল জিসাঁ
उनकी आज्ञाकारिणी रहें, जो कार्य करें, उनके आदेशानुसार करें ।
पति से भी वह यही ञझ्राशा रखती थीं कि वह उचके গ্পাহাক্ষাতী
रहें / 'ऐसी पत्नी उनके नसीव में थी कद्टाँ--ये उनके बड़े भाग्य हैं,
जो उन्हें मेरे समान पत्नी मिली है, फिर भो वद्द मेरी कदे नदीं
करते 1› कट् करने का अथं प्रियंचदा देवी यह समकती थीं कि
सुखदेवप्रसाद प्रत्येक समय उनका मुँह ताकते रहें, भोर जिस समग्र
जैसी उनकी इच्छा हो, वैसा दी करें । उनके क्िछ्ठी काये पर वह्द
कमी कोड आपत्ति न फरें। जिस समय प्रियंवदा देवी की इस प्रकार
की क्द्रदानी में च्याघात लगता था, सब चढद्ठ श्रपनी सुशिक्षा की
सहायता लेकर 'स्वतंत्रता' सथा अधिकार” के सिद्धांतों पर दृष्टिपात
करती थीं। उस समय उन्हें यह पता लगता था कि भारतीय
नारियों पर समाज बढ़ा श्रत्याचार करता है। दूसरों से নীল
ऐसी आशाएँ रखती थों; परंतु स्वयं उनका व्यवहार केषा था?
स-ससुर की सेवा करना यह दाखी-कर्म समझती थीं। एक दिन
' उनकी सास के पेरों में दुई उठा-। सुखदेवप्रसाद ने उनसे कट्ठा---
जाओ, ज़रा माताजी के पैर दाव दो । प्रियंवदा देवी मुहं बिचरा-
कर बोलीं-- यह काम तो नोकरों का है, मेने आज तक किसी के
गैर नहीं द्वावे, में पेर दाबना क्या जाने ?” यहाँ राक कि पति की
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