वीतराग विज्ञान भाग - 4 | Veetarag Vigyan Bhag - 4

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Veetarag Vigyan Bhag - 4 by नेमीचन्द पाटनी - Nemichand Paatni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छहढाला प्रवचत, चौथी ढाल ] [ १६ कहते हैं कि हे जीव ! तेरे लिए हम पर द्रव्य हैं, हमारी सन्मुखता से तुझे सम्यग्दशन को प्राप्ति नही होगी, वह तो तुभे स्वरूप के लक्ष्य से ही होगी, अत राग और पराश्रय की बुद्धि छोड ! परलक्ष्य छोडकर पृण्य-पाप से भी पार अपने शुद्ध ज्ञानानन्द स्वरूप आत्मा की रुचि कर । वाहय पदार्थं तो दूर रहे, अपने मे रहने वाले गुणो के मेद का विकल्प भो जिसमे नही ~ एेसा सम्यग्दणेन है, वह्‌ ्रपूवं वस्तु है । उसके विना जीव ने पहले बहुत प्रयास किये, परन्तु अपने स्वरूप का सच्चा श्रवरा, रूचि, आदर ओर अनुभव कभी नही किया, इसलिए श्रव सम्यक्तया जागकर तु भ्रात्मा की पहिचान कर-णेसा सन्तौ का उपदेश है । अपना परमात्म स्वरूप अनन्त शान्त रस से परिपूर्ण है, उसमे गण-गुणी के भेदको भी छोडकर प्रन्तर्मुख सम्यग्दशेन का प्राराधनं करना - यह वात तीसरी ढाल मे कही, श्रव उस सम्यग्दर्शन पूर्वक ज्ञान की आराधना की बात चलती है। सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान मे गुणभेद का विकल्प काम नहो करता, ये दोनो ही विकल्‍्पो से भिन्न है । श्रन्तरमे राग से भिन्न पडकर चंतन्यस्वभाव की श्रनुभूति पूर्वक सम्यग्दर्शन और सम्यग््ञान होता है । घमके प्रारममे ही एेसा सम्यग्दणेन-सम्यग्न्ञान होता है ओर अनन्तानुवधी के प्रभाव से प्रकट हुआ सम्यक्चारित्र का अश भी होता है, जिसे स्वरूपाचरण कटते है । चौथे गुणस्थानसे जीव को ऐसे धर्म का प्रारभ हो जाता है और वह मोक्ष के मार्ग मे चलने लगता है। प्रथम सम्यग्दर्शन और बाद मे सम्यग्जञान - ऐसा समय भेद नही है, दोनो साथ ही है । जहाँ आत्मा की सम्यक्‌ श्रद्धारूप दीपक जला, वहाँ साथ ही सम्यग्ज्ञान का प्रकाश भी प्रकट होता है। सम्यक्‌ दर्शन के साथ मुनिदशा होवे ही - ऐसा नियम नही है। मुनिदशा तो हो अथवा न भी हो, परल्तु सम्यग्ज्ञान तो साथ से होगा ही - ऐसा नियम है। श्रद्धा सम्यक्‌ हो और ज्ञान मिथ्या रहे - ऐंसा नही बनता । सम्यर्दृष्टि को ज्ञान भले कम हो, परन्तु होता वह सम्यक ही है ।




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