पृथ्वी और आकाश | Prxthvii Aur Aakaasha

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Prxthvii Aur Aakaasha by शमशेर बहादुर सिंह - Shamsher Bhahdur Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भरी हुई बाल्टियों के बोक से दोहरी होती धीरे-धीरे पहाड़ी के ढाल पर चढ़ने लगी । सूय आसमान पर काफ़ी ऊँचा चढ़ आया था, मगर बफ़ में उससे कोई अंतर नहीं पड़ा था। बफ़ नीली-सी लग रही थी, पर उसकी समझ में नहीं थरा रहा या कि सचमुच वह नीली ही थी, या उसको आँखों को ही ऐसा लग रहा था, जो अभी-अ्भी अपने बेटे के फैले हुए जड़, चाक-से सफ़ेद डरावने पैरों का नीलापन देखकर लोटी थीं । उसके घर के ञ्रागे ठंड से ठिद्धरा हुश्ना संतरी इधर से उधर टहलकर पहरा दे रहा था। वह, अपने कंधों को उच्काता हुआ, अपने हाथों को बगल मं दवाकर गर्माता, अपनी हथेली की कड़ी उंगलियों से अपने गालो को रगड़ता रहता था। फिर भी तीक्ृण पाला उसके नालदार जूतों और उसके ठंडे हरे-से श्रोवरकोट में घुसा जा रहा था, उसके पंजों को नखोचता ্সীং उसकी आँखों म॑ अपने नाख़न घुसाये दे रह्य था। संतरी ध्यान से, घूरकर उस स्त्री की ओर देखने लगा, यद्यपि वह तभी से उससे परिचित था जब से कि अर्सा हुआ उसका रेजिमेंट इस गाँव में आया था। वह उसके पास से होकर इस तरह निकल गई जैसे उसको देखा ही नहीं। दरवाज़ा आवाज़ करता हुआ खुला और भाष का जुझ्मा बाहर निकला | “इतनी देर तुमने क्‍यों लगाई ! इस तरह रोज़-रोज़ तुम्हारे लिए मुझे इंतज़ार करना पढ़े--यद में नहीं सह सकती !? उसने कोई उत्तर नहीं दिया । होंठ भींचे हुए वह चूल्हे के पास आई, आग पर जो बतन चढ़ा हुआ था, उसमें थोड़ा पानी डाला | लकड़ी के प्रायः बुके हुए अंगारों पर उसने कुछ लकड़ियाँ डाल दीं। “एक गिलास पानी दो मुझे | प्यास लगी है ।? बाल्टी में पानी रखा है | ले लो ।? उसने तड़ाक से जवाब दिया । अपने परों के लिहाफ़ के अंदर ही अदर दूसरी सत्री गुस्से के मारे काँपने लगी | “ठहरी रह, आने दो मेरे पति को, में उससे कहूँगी !? उस स्त्री ने अपने कंघों को ज्ञरा भटका दिया। पति की भी एक ही रही ! १३




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