सिन्धी जैन ग्रंथमाला | Sindhi Jain GranthMaala

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Sindhi Jain GranthMaala  by महेंद्र कुमार - Mahendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| ५ | विशेष व्यापक होता है। वे कमसे कम न्यायश्ञा्रके तो मौलिक प्रन्थांका अचर्य परिचय प्राप्त करते हैं; और इसके उपरान्त, जिन कितने एक जेन तक ग्रन्थोंका वे अध्ययन-मनन करते हैं, उनमें, थोड़ी बहुत, सब ही दशनोंकी चर्चा और आलोचना की हुई होती हूँ इमम ममी दर्शनोंके मूलभूत सिद्धान्तोंका थोड़ा-बहुत परिचय जन तकाभ्यासियोंकों जरूर रहा करना हैं. । भारतीय इतिहासके भिन्न-भिन्न युगां ओर उसके प्रमुख प्रज्ञाशालियोंका जब हम परि- चय करते हैं तब हमें यह एक ऐतिहासिक तथ्य बिदित होता है कि जिस तरह জন নিগ্গালাল अन्य दार्शनिक सिद्धान्तो अविपर्याममावसे अवलोकन ओर सत्यता-पृवक समारोचन किया, पैसे अन्य विद्रानाने-खासकर ब्राह्मण विद्रानोने-जन सिद्धान्तांक विधयमं नहीं किया । उदादरणक्र लिये वर्तमान युगक एक असाधारण महापुरुष गिन जान लायक स्वामी दयानन्दका उल्लेग्म किया जा सकता है। म्वामीजीने अपन सत्याथप्रकाश नामक सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थमें जेन दशशनके मन्तव्योंके विपयमें जो ऊटपटांग और अंड-अंड बानें लिखी हैं, वे यद्यपि विचारशील विद्वानोंकी दृष्टिमं सवंधा नगण्य रही हैँ; तथापि उनके जसे युगपुरुपकोी कीर्तिकों वे अवश्य कलह्लित करने जैसी हैं ओर अक्षम्य कोटिसें आनेवाली श्रान्तिको परिचायक हैं इसी तरह हम यदि उस पुरातन काक्र ब्रह्मवादी अद्रताचाय स्वामी शाद्रुरक ग्रन्थोंका पठन करते हैं तो उनमें भी, स्वामी दयानन्दके जसी निन्यकौटिकी तो नहीं, रकि आ्रान्तिमूलक ओर विपर्याससूचक जेनमत-मीमांसा अवश्य हृष्टिगाचर होती है । स्वामी दहुरा- चार्यने अपने त्रद्मसूत्रेंके भाष्यमें, अनेकान्तसिद्धान्तका जिन युक्तियों द्वारा खण्डन करनेका प्रयत्न किय। है, उन्हें पढ़कर, किसी भी निष्पक्ष विद्वानका कहना पड़ेगा किन्या तो शङ्काराचायं अनेकान्त सिद्धान्तसे प्रायः अज्ञान य या उन्टांने ज्ञानपृवक्‌ इस सिद्धान्तका विपयासभावसे परिचय दनेका असाधु प्रयत्न किया है। यही बात प्रायः अन्यान्य राख्रकारांके विपय्रमें भी कही जा सकती है । इस कथनसे हमारा मन्व सिक इतना ही हे कि-ठे प्राचीन काल ही से जन दाशनिक मन्तब्योंक विपय्े, जनेतर दार्शानकोंका ज्ञान बहुत थोड़ा रहा है ओर स्याद्राद या अनेकान्त सिद्धान्तका सम्यग रहस्य क्या हैं इसके जाननको शुद्ध जिज्ञासा बहुत थोड़े बिद्वानोंको जागरित हुई ই। अस्तु, भूतकालमें चाहे জা हुआ होः परंतु, अब समय बदला है| वह पुरानी মল- असहिण्णुता धीरे-धीरे विदा हो रही है । संसारमें ज्ञान ओर विज्ञानकी बड़ी अदभुत और बहुत बेगवाली प्रगति हो रही है| मनुष्य जातिकी ज़िज्ञासाबृत्तिन आज बिलकुल नया रूप धारण कर लिया है। एक तरफ़ हज़ारों विद्वान भूतकालके अज्ञेय गहम्यों और पदार्थकों संविज्ञेय करनेम॑ आकाश-पाताल एक कर रहे हैँ; दूसरी तरफ़ हजारा विद्वान ज्ञात विचारों और सिद्धान्तोंका विशेष व्यापक अवलोकन ओर परीक्षण कर उनकी सत्य-असन्यता ओर तासक्विकताकी मीमांसाके पीछे हाथ धो कर पड़ रह हैँ। भांरतीय तत्त्वज्ञान जो कनक मात्र आह्मणों और श्रमणोंके मठांकी ही देबोत्तर सम्पत्ति समझी जाती थी बह आज सारे भूखण्डवासि्योकी सर्वसामान्य सम्पत्ति बन गद है। प्रश्वीके किसी भी कानेमें रहने बाला कोई भी रंग या जातिका मनुग्य, यदि चाहे तो आज्ञ इस सम्पत्तिका यसथ्रेष्ठ उपभोग कर




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