हमारी बा | Hamaarii Baa
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
230
श्रेणी :
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काशिनाथ त्रिवेदी - Kashinath Trivedi
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बनमाला परीख - Banmala Parikh
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सुशीला नैयर - Sushila Naiyar
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)& हमारी षा
सैंभालनेका सारा काम बा ही दिन-रात किया करती थीं । रसोईघर तो
समूचा बके. ही ज़़्िम्मे था। बाने सासके जैसी ही जेठानीकी भी
सेवा की है ।
विलायतसे वापस आनेके बाद भी बापूजी अपने ईर्ष्याठ स्वभावको
छोड़ नहीं पाये थे। वे लिखते हैं: “ हर मामलेमें मेरी नुक््ताचीनी और
मेरा वहम क़ायम रहा । इसकी वजहसे में अपनी चाही हुई मुरादोंको
पूरा नहीं कर पाया । मेंने सोचा था कि मेरी पत्नीकों अक्षरज्ञान होना
ही चाहिए ओर वह में उसे दूँगा । लेकिन मेरी विषयासक्तिने मुझे
वह काम करने ही न दिया, ओर अपनी ख़ामीका गुस्सा मैंने पत्नी
पर उतारा । एक वक़्त तो ऐसा आया कि मेंने उसे उसके मायके
ही मेज दिया ओर बहुत ज़्यादा तकलीफ़ देनेके बाद फिर साथ रहने
देना क़बूल किया । बादमें में देख सका कि इसमें मेरी निरी नादानी
ही थी ।
इस घटनाके बारेमें बापूजीसे ज्यादा जानकारी प्राप्त की जा सकती
थी । लेकिन उनकी बीमारी और दूसरे महत्त्वके कामोंमें उनकी व्यस्तताके
कारण में इस सम्बन्धका ब्योरा उनसे प्राप्त नहीं कर सकी ।
हिन्दुस्तानमें बापूजीकी बरिस्टरी अच्छी तरह नहीं चली ओर उन्हें
एक मुकदमेके सिलसिलेम अफ्रीका जाना पड़ा । उस समयकी अपनी
और बाकी भावनाकी थोड़ी झांकी बापूजीने हमें दी हैं । वे लिखते
हैँ: “ विलायत जाते समय जो वियोग-दुःख हुआ था, वह दक्षिण
अफ्रीका जाते वक़्त नहीं हुआ । माता तो चली गई थीं, इसलिए इस
बार सिफ़ं॒पत्नीके साधका वियोग दुःखदायी धा । विलायतसे लौटने
बाद दूसरे एक बालककी प्राप्ति हुईं थी । हमारे बीचके प्रमे अभी
विषय तो था ही, फिर भी उसमें निमलता आने लगी थी । मेरे
विलायतसे लोट आनेके बाद हम बहुत कम समय एक साथ रहे थे।
और चूकि में स्वयं, सा भो क्यों न दो, एक शिक्षक बना था, और
मैंने अपनी पत्नीमें कुछ सुधार कराये थे, इसलिए उन्हें क़ायम रखनेके
ख़यालसे भी हमारे एक साथ रहनेकी जरूरत हम दोनोंको मालूम
होती थी । लेकिन अफ्रीका मुझ्ले खींच रहा था । उसने वियोगको सरल
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