हमारी बा | Hamaarii Baa

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Hamaarii Baa by काशिनाथ त्रिवेदी - Kashinath Trivediबनमाला परीख - Banmala Parikhसुशीला नैयर - Sushila Naiyar

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काशिनाथ त्रिवेदी - Kashinath Trivedi

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बनमाला परीख - Banmala Parikh

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सुशीला नैयर - Sushila Naiyar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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& हमारी षा सैंभालनेका सारा काम बा ही दिन-रात किया करती थीं । रसोईघर तो समूचा बके. ही ज़़्िम्मे था। बाने सासके जैसी ही जेठानीकी भी सेवा की है । विलायतसे वापस आनेके बाद भी बापूजी अपने ईर्ष्याठ स्वभावको छोड़ नहीं पाये थे। वे लिखते हैं: “ हर मामलेमें मेरी नुक््ताचीनी और मेरा वहम क़ायम रहा । इसकी वजहसे में अपनी चाही हुई मुरादोंको पूरा नहीं कर पाया । मेंने सोचा था कि मेरी पत्नीकों अक्षरज्ञान होना ही चाहिए ओर वह में उसे दूँगा । लेकिन मेरी विषयासक्तिने मुझे वह काम करने ही न दिया, ओर अपनी ख़ामीका गुस्सा मैंने पत्नी पर उतारा । एक वक़्त तो ऐसा आया कि मेंने उसे उसके मायके ही मेज दिया ओर बहुत ज़्यादा तकलीफ़ देनेके बाद फिर साथ रहने देना क़बूल किया । बादमें में देख सका कि इसमें मेरी निरी नादानी ही थी । इस घटनाके बारेमें बापूजीसे ज्यादा जानकारी प्राप्त की जा सकती थी । लेकिन उनकी बीमारी और दूसरे महत्त्वके कामोंमें उनकी व्यस्तताके कारण में इस सम्बन्धका ब्योरा उनसे प्राप्त नहीं कर सकी । हिन्दुस्तानमें बापूजीकी बरिस्टरी अच्छी तरह नहीं चली ओर उन्हें एक मुकदमेके सिलसिलेम अफ्रीका जाना पड़ा । उस समयकी अपनी और बाकी भावनाकी थोड़ी झांकी बापूजीने हमें दी हैं । वे लिखते हैँ: “ विलायत जाते समय जो वियोग-दुःख हुआ था, वह दक्षिण अफ्रीका जाते वक़्त नहीं हुआ । माता तो चली गई थीं, इसलिए इस बार सिफ़ं॒पत्नीके साधका वियोग दुःखदायी धा । विलायतसे लौटने बाद दूसरे एक बालककी प्राप्ति हुईं थी । हमारे बीचके प्रमे अभी विषय तो था ही, फिर भी उसमें निमलता आने लगी थी । मेरे विलायतसे लोट आनेके बाद हम बहुत कम समय एक साथ रहे थे। और चूकि में स्वयं, सा भो क्यों न दो, एक शिक्षक बना था, और मैंने अपनी पत्नीमें कुछ सुधार कराये थे, इसलिए उन्हें क़ायम रखनेके ख़यालसे भी हमारे एक साथ रहनेकी जरूरत हम दोनोंको मालूम होती थी । लेकिन अफ्रीका मुझ्ले खींच रहा था । उसने वियोगको सरल




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