मंगलू की माँ (सामाजिक उपन्यास) | Manglu Ki Maa (Samajik Upanyas)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
238
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मंगलू की माँ ११
अन्धकार बढ़ रहा था। सूर्य की किरणों का प्रकाश, जो क्रिसी प्रकार
बादलों को भेदकर जमीन पर फैला हुआ था, अब सूर्य के छिप जाने के
कारण धीरे-धीरे रात्रि के अन्धकार के नीचे दवता चला गया | अंधकार,
चारों और अंधकार; क्योंकि यहाँ सड़क पर जलने बाली वत्तियों का
शहर-जैसा प्रकाश वहीं था। कस्बे की पंचायत ने कुछ मिट्टी के ते की
लालटेनें अवब्य लगा रखी थीं जहाँ-तहाँ दगड़े में और उनमें से एक
मेरी बैठक के सामने भी थी; परन्तु वे जल नहीं रही थीं | शायद जलती
भी नहीं थी वे कभी ।
इपी अच्धकार में मैंने एक धृंघछी सी छाय्रा अपने चबूतरे के सामने
बड़ के पेड़ के नीचे इधर-उधर हिर्तौ हुई देख । एक स्वी थी वह जो
कभी इधर और कभी उधर घृम रहो थी। कभी खड़ी होकर हमारे
चनूतरे की ओर देखने लगती थी ।
मैंने विद्येष ध्यान तहीं दिया उसपर। अपनी बैठक से होता हुआ,
चरक की कुण्डी अल्दर से बल्द करके, में पीछे के दरवाजे से घर के सहन
मे चरा गया ।
में घर में पहुंचा तो माताजी खासा बना चुकी थीं। घर के सहन के
बीचों-बीच दो चारपाइयाँ पड़ी थीं, उन्हीं पर में और माताजी बैठ गये ।
बातें करते लगे कुछ इधर-उधर की ।
अभी बैठे अधिक समय नहीं हुआ था करि तभी इलारी भाभी
आ पहुँचीं ।
भाभी को देखकर माताजी पीदं कौ अर संकेत करके बोलो, अजा
षटलारी ! बैठ जा पीठे पर 1“
दुलारी भाभी मु स्कराती हुई पीढ़े १९ बैठ गईं, और उसी प्रम्नन्न मुद्रा
में मेरी ओर आँखें घृमाकर बोलों, 'लाक्ाजी, शहर में जाकर ऐसे रम
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