महाबंधो (महधवाल सिद्धान्त शास्त्र खंड-3) | Mahabando (mahadhaval Siddhanta Shastra Vol-iii)

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Mahabando (mahadhaval Siddhanta Shastra Vol-iii) by फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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` . डक्‍्केस्ससंत्थाणंबंधसण्णियासपरूषणा._.॒.. ४ सिया बं७ सिया अब॑ं ० -। यदि वँ० ते तु० | अधिर-अंसुभ-अजस ० सिया वं७ सिंया अंबं० | यदि ब० णिय० अणु० दुभागूणं वंधंदि । एवं देवाणुपु० | ,' - 8. एइंदियस्स उक्क०ट्विदिवँ्ध ० .. तिरिक्खग०-ओरालि०-तेजा०-क ०-हु'ड्स० 'बणण०४-तिरिक्खाणु ०-अगु ० ४-थावर-वादर--पज्जत्त-पत्ते ०-अधथिरादिपंच ०-शिएमि ० सिय० वबं० | ते तु०।. आदाउज्जो० सिया वँ० सिया अव॑०-] यदि बं० | त॑ तु० | एवं आदाव-थावर ० । । ` १.०, वीईंदि० “उक्क०द्विदिवं० . 'तिरिव्खग०-ओरालि०-तेजा ०-क् ०-ह'ढड०- «_ ओरालि«अंगों ०-असंपत्त 5-वएण ० ४-तिरिक्खाशु ०-अग्रु ०-उप ०-तस ०-बादर-पत्ते ०- _ _अधिरादिपंच ०-णिमि० णिय्र० व॑०. । अणुं० संखेज्जदिभागूणं. वंधदि |: पर०७- ' उस्सा०-उज्जों >-अप्पसत्थ ०-पज्ज ७ -अपज्ज ०-हस्सर सिया -बँ० | तं तुर । १८ পাপা ~^ ^^ ^ ^^ ०५१८९८८ - श्रसंख्यातवां भाग न्यूनतक बाधता है। स्थिर, शुभ और यशःकीति इस .प्रकृतियोंका : , कदायित वन्धक होता है श्रोर कदाचित्‌ श्रवन्धक् होता हैः । यदि चन्धक होतादहै तो चह '. उत्कृष्ट स्थितिका भी वन्‍्धक होता हैं और अनुत्छए स्थितिका भी वन्धक होता है | यदि ` श्रतं स्थितिका बन्धक . होता है तो नियमसे. डत्कश्से अलुत्कफ एकसमय न्यूनसे . लेकर पठ्यका शअरसंख्यातवां भाग ` न्युनतक बाघता है। अंस्थिर, अशुभ ओर अयशः- ` कीर्ति इन प्रकृतिर्योका। कदाचित्‌. वन्धक होता है शरोर कद्‌+चिद्‌ अवन्यक होता है 1 यदि चन्धुक होता ই লী লিখি আন্ত दो भाग न्युनकौ बन्धक होता हैं। इसी प्रकार ` देवरंत्यानुपूर्वीके आश्रयसे सन्निकर्प जाननां चाहिए। . ९, एक्ेन्द्रिय जातिंकी उत्छृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव तिर्य॑श्वगति, ओदारिक ' शरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान; वर्ण॑चतुष्क, , तियश्वगत्याजुपूर्वी, --श्रगुखुलघु चतुष्क, स्थावर, चादर, पर्याप्त, प्रत्येकः शरीर, अस्थिर बादि पांच श्रोर - निर्माएं इन प्रकृत्ियोंका मनियमसे बन्धक होता है।. किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी चन्धक -होता है ओर अनुत्कष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है 1 यदि. प्रनुत्छरएट स्थितिका `, चन्धक होता है' तो चह नियमले उत्कछसे अ्ुत्कूट ' एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक वॉँयता है। आतप और उद्योत इन परकृतियोंको कदाचित्त्‌ - बन्धक होता है ओर कदाचित्‌ अवन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो बह ट्छ ._ स्थितिका भी वन्धक होता है ओर अलुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्‍्धक होता है। यदि अन्ु- ` त्कष्ट स्थितिका वनन्‍्धक होता हैं तो वह नियमसे उत्कृ्टसे अजुत्कूट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका अखंख्यातवां भाग न्‍्यूनतक वाॉधता है। इसी प्रकार आतप ओर स्थावर पङ्क - , तिके -श्राध्रयसे सचलिक्छपं जनिना चादहिपः 1 | १०.. दीन्दिय. जात्तिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीच तिर्यञ्चगतिः श्रद्‌! रिक ` शरीर, तैजस शरीर, कार्मण . शरीर, दुण्डसंस्थान, ओदारिक ्राज्ञोपाज्ग, श्रसमस्प्राप्ाखपाटिका संहनन, चर्णचत॒प्के, तिर्यश्वगत्यानुपूर्ची, अंगुरुलघु, उपधात, चस, चादर, बत्येक, अस्थिर आदि पच ओर :निर्माण ছল प्रकृतियोंका सियससे बन्धक होता है। জী সং संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका वन्धक होता है। परचघांत, डच्छास, उद्योत, अप्रशस्तबि .. हायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त, और डुश्खर, इन प्रकृतियोंका कदाचित्‌ ` बन्धक होतों ` है और कदालित्‌ अवन्धक होता है। किन्तु यदि वन्धक होता है तो उत्कृएट स्थितिका भी : - चन्‍्चक होता है और अलनुत्छ्ट स्थितिका भी वन्‍्धक होता है। यदि _ यनुत्छष्ट स्थितिका । मूलमतौ पज० दुस्सर श्रपन ० साघार° सिचा. दति पाटः 1 ` २. मूतग्रतौतं त्त ছা ভু লিষা




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