कृष्णकुमारी नाटक | Krishnakumari Natak

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Krishnakumari Natak  by रामकृष्ण वर्म्मा - Ramkrishn Varmma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(২) | ঘর | कोई नाव्यलीला दिखाऊँ, पर कौन सा नाटक खेलूं , यद्दौ विचार कर रहा हूं। || ते--नाथ ! बहुत से अद्भुत नाटक, झद्गभागर, हास्य करुणा बोर, अद्भुत, भवानक द्॒त्यादि रस से, तथा समाज { संशोधन, देशहितेपिता भारतदुदंशाप्रदर्शन गुणों से भृषित हैं, चाहे जो खेलिये सव में सैं विख्यात हूं। « ध्ृ०--प्रिये ! नाटक तो सभी हैं परन्तु ऐसे २ गुण्णियों को रिफ्ानेवाला नाटक तो अभी तक मेरे मन में कोई न ক জন্বা। ग्रे--प्राणेश ! नाटक के रसिकों के न होने से बहुत दिनों से जो नाटक नहीं खेला गया इस्से क्या आप भूल गये? शकुन्तला, भारतजननो, नोलदेवौ, भारतदुरदश्णा इत्यादि सभो तो एक से एक उत्तम भरे पड़े हैं। । 1०--हां ठोक है परन्तु ये विदज्जन, र।सलोला इन्द्रसभा पारसोलोला लैलोमजन , गुलवकावलो तथा भारतजननी , इत्यादि नाटकों से क्या प्रसन्न होंगे ? जेसे भ्रमर नित्य नद २ सुमनवासना का रसिक होता है तेसेहो विद्दत्जन नित्य नई २ कलाचातुरो के अनुरागों होते हैं सो प्रिये ! इन्दः कोई नूतन नाटक जो देणहितैषिता इत्यादि गुणं से भूषित हो दिखाना चादिये । | दो--नाथ ! यदि अपराध क्षमा हो तो कुछ निवेदन 1 करू । পপ 11




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