परिचित प्रश्न : नई समीक्षा | Parichit Prashna : Nai Samiksha

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Parichit Prashna : Nai Samiksha by सत्यपाल चुघ - Satyapal Chugh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४] ` परिचित प्रशन, नए उत्तर सामान्य मानचिन्हों वेद-पुराणों के प्रति श्रद्धा स्थिर करते हुए, वशी श्रम धर्म की व्यवस्था के साथ जाति को ऐसी प्रबल शक्ति के रूपमे प्रस्तुत करना था जो इस्लाम का सामना करने मे समयं हौ सकती +. इसलिए तुलसी ने संत मार्गियों के साथ “'किहनी भ्रारूयान' कहने वाले, बेदनिदक उन जायसी आदि सूफियों का भी परोक्षात्मक विरोध किया है जो सांकेतिक विधि से इस्लाम के प्रचार-प्रसार में संलग्न थे । फिर भी तुलसीदास की समन्वय साधना अधूरी रह जाती यदि वह निम्न जातियों के लिए आदर्श राम राज्य की व्यवस्था न करते, शील पर विशेष बल देकर, उसका राम-कथा के रूप में श्रसामान्य उत्कर्ष दिखाकर, पाखंड- खंडन न करते । यह भी स्पष्ट है कि उन्हें अपनी इस समन्वय साधना जन्य' जातीय संगठन की सफलता की लक्ष्य-सिद्धि के हेतु कबीर की स्पष्ट-प्रखर दैली के स्थान पर अधिक मनोवैज्ञानिक, अधिक सांकेतिक रोली से काम लेना था । मात्र समन्वयात्मक भ्रादर्शो के कथन अथवा सिद्धांतों के खंडन-मंडन से वह्‌ प्रभाव नहीं पड सकता जो इनको पमाशित करने वाली कथा का आधार लेकर हो सकता था | किसी को विधि- निषेधात्मक वचनों-ऐसा करो' ऐसा न करो आदि-से समभाना अमनो- वेज्ञानिक हैं किन्तु श्राद्श चरित्रों वाली कथा के यथार्थ कथन से अनुकरणा- त्मक प्रवृत्ति जाग्रत की जा सकती है। तुलसी ने राम कथा के माध्यम से उक्त लक्ष्य को सिद्ध किया । रामानंद ने हिदी साहित्य को कबीर और तुलसीदास दोनों भिन्न- भिन्न मतावलम्बी दिये । इस्तका कारण यही है कि उनको अपना व्यक्तित्व भी समन्वयशील था। तुलसीदास को रामानंद के इस समल्वयरील व्यक्तित्व से भी प्रेरणा मिली होगी । तुलसीदास को परम्परा तथा समय से समन्वयात्मक प्रवृत्ति के लिए प्रेरणा तो मिली ही उनके व्यकितत्व ने भी इसमे योग दिया । तुलसी दास विविध सामाजिक स्तरों में जीवन व्यतीत कर चुके थे। ब्राह्मण वंश में उनके जन्म तथा दरिद्रता के कारण दर-दर भटकने में वे विभिन्न




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